BHAIYA PRAFULL SINGH
Friday, July 22, 2011
Saturday, May 7, 2011
क्रोध
कोई भी चीज जब हमारे मनोनुकूल नहीं होती है, और धीरे-धीरे सहनशक्ति भी पार हो रही हो, तो उस स्थिति को रोकने के लिए प्रकृति हमारे अंदर एक विस्फोट करती है, बस-वही विस्फोट क्रोध बनकर बाहर प्रकट होता है । आज कमोवेश ज्यादातर लोग समाज में क्रोधी स्वभाव के हो गए हैं । यह अत्यन्त ही चिन्ताजनक बात है । मनोवैज्ञानिक भी इस समस्या से निदान के लिए जूझ रहे हैं ।
वस्तुतः इच्छाओं की पूर्ति का न हो पाना ही क्रोध का कारण है । विज्ञान क्रोध को एक ‘एनर्जी’ मानता है और ‘एनर्जी’ का यह नियम है कि एक बार वह पैदा हो जाय, तो उसे नष्ट नहीं किया जा सकता है । इसका रूपान्तरण किया जा सकता है । क्रोध सबसे पहले इंसान की बुद्धि को क्षीण कर उसकी स्मरण शक्ति को समाप्त करता है । सोचने-समझने की शक्ति पूरी तरह से समाप्त हो जाती है । हर निर्णय व्यक्ति गलत लेने लगता है । क्रोध हमेशा मूर्खता से शुरू होता है, और पश्चाताप से समाप्त होता है । इसलिए मर्यादित व्यक्ति इसकी पहली चिनगारी को शुरू होने से पहले ही समाप्त करने का प्रयास करता है । क्रोध के समय व्यक्ति अपना आपा खो बैठता है, श्वांसों की गति इतनी तेज हो जाती है कि व्यक्ति सीमित श्वासों की पूंजी के तरफ अपना ध्यान ही नहीं देता है । क्रोधी व्यक्ति की हमेशा की चिड़चिड़ापन उसकी आयु को कम करती है । महाराक्षस क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, इसीलिए शास्त्रों में भी कहा गया है -‘क्रोधो वैवस्वतो राजा।’ क्रोधी व्यक्ति का रक्त संचार बढ़ने लगता है, थुथुने फूलने लगते हैं, भृकुटि तन जाती है । जो जान लेवा भी हो सकती है । क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है ।
आइये ! क्रोध से बचने के लिए कुछ सरल व सहज उपायों पर हम ध्यान देंः-
1) सबसे पहले उनके साथ न बैठें, जिनके साथ बैठने पर आपको क्रोध आता है ।
2) क्रोध के समय मन की दिशा को बदलने का प्रयास करें । चित्रादि बनाकर मन को बहलायें ।
3) ज्यादा से ज्यादा प्रकृति के बीच रहें ।
4) दिन में पानी खूब पिएं । सर्दी का मौसम हो तो पाँंच-छः बार और यदि गर्मी है, तो कम से कम आठ-दस बार जरूर पीएं ।
5) प्रतिदिन प्रातःकाल अपने मन को श्वॉंस-प्रश्वास की क्रिया द्वारा स्वस्थ रखने का प्रयास करें ।
6) क्रोध के समय एकान्त स्थान में चले जाऍं । शवासन में लेटकर मन को शांत करने का प्रयास करें ।
7) ज्यादा मिर्च-मसाले वाले भोजन अथवा तले हुए पदार्थ कम से कम लें।
8) किसी भी कार्य को जल्दबाजी में न करें । भोजन चबाकर ठीक से लें। शीत्कारी प्राणायाम करें । जीभ को दांतों के बीच हल्का दबाकर अन्दर की ओर एक-दो बार श्वास लें ।
9) ज्यादा से ज्यादा मुस्कुराने के प्रयास करें । संगीत आदि गुनगुना सकें, तो ज्यादा अच्छा होगा ।
10) ज्यादा से ज्यादा उत्पन्न होने वाली कामनाओं, ऐष्णाओं और वासनाओं पर नियंत्रण रखने का प्रयास करें ।
11) खुलकर हंसने का प्रयास करें और साथ ही बीती हुई बात को लंबे समय तक ढोने का प्रयास न करें । वर्तमान में जीते हुए व्यायाम और प्राणायाम के माध्यम से मन और मस्तिष्क को निर्मल रखने का प्रयास करें ।
12) समय-समय पर ध्यान, प्रार्थना और भक्ति को माध्यम बनान्
वस्तुतः इच्छाओं की पूर्ति का न हो पाना ही क्रोध का कारण है । विज्ञान क्रोध को एक ‘एनर्जी’ मानता है और ‘एनर्जी’ का यह नियम है कि एक बार वह पैदा हो जाय, तो उसे नष्ट नहीं किया जा सकता है । इसका रूपान्तरण किया जा सकता है । क्रोध सबसे पहले इंसान की बुद्धि को क्षीण कर उसकी स्मरण शक्ति को समाप्त करता है । सोचने-समझने की शक्ति पूरी तरह से समाप्त हो जाती है । हर निर्णय व्यक्ति गलत लेने लगता है । क्रोध हमेशा मूर्खता से शुरू होता है, और पश्चाताप से समाप्त होता है । इसलिए मर्यादित व्यक्ति इसकी पहली चिनगारी को शुरू होने से पहले ही समाप्त करने का प्रयास करता है । क्रोध के समय व्यक्ति अपना आपा खो बैठता है, श्वांसों की गति इतनी तेज हो जाती है कि व्यक्ति सीमित श्वासों की पूंजी के तरफ अपना ध्यान ही नहीं देता है । क्रोधी व्यक्ति की हमेशा की चिड़चिड़ापन उसकी आयु को कम करती है । महाराक्षस क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, इसीलिए शास्त्रों में भी कहा गया है -‘क्रोधो वैवस्वतो राजा।’ क्रोधी व्यक्ति का रक्त संचार बढ़ने लगता है, थुथुने फूलने लगते हैं, भृकुटि तन जाती है । जो जान लेवा भी हो सकती है । क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है ।
आइये ! क्रोध से बचने के लिए कुछ सरल व सहज उपायों पर हम ध्यान देंः-
1) सबसे पहले उनके साथ न बैठें, जिनके साथ बैठने पर आपको क्रोध आता है ।
2) क्रोध के समय मन की दिशा को बदलने का प्रयास करें । चित्रादि बनाकर मन को बहलायें ।
3) ज्यादा से ज्यादा प्रकृति के बीच रहें ।
4) दिन में पानी खूब पिएं । सर्दी का मौसम हो तो पाँंच-छः बार और यदि गर्मी है, तो कम से कम आठ-दस बार जरूर पीएं ।
5) प्रतिदिन प्रातःकाल अपने मन को श्वॉंस-प्रश्वास की क्रिया द्वारा स्वस्थ रखने का प्रयास करें ।
6) क्रोध के समय एकान्त स्थान में चले जाऍं । शवासन में लेटकर मन को शांत करने का प्रयास करें ।
7) ज्यादा मिर्च-मसाले वाले भोजन अथवा तले हुए पदार्थ कम से कम लें।
8) किसी भी कार्य को जल्दबाजी में न करें । भोजन चबाकर ठीक से लें। शीत्कारी प्राणायाम करें । जीभ को दांतों के बीच हल्का दबाकर अन्दर की ओर एक-दो बार श्वास लें ।
9) ज्यादा से ज्यादा मुस्कुराने के प्रयास करें । संगीत आदि गुनगुना सकें, तो ज्यादा अच्छा होगा ।
10) ज्यादा से ज्यादा उत्पन्न होने वाली कामनाओं, ऐष्णाओं और वासनाओं पर नियंत्रण रखने का प्रयास करें ।
11) खुलकर हंसने का प्रयास करें और साथ ही बीती हुई बात को लंबे समय तक ढोने का प्रयास न करें । वर्तमान में जीते हुए व्यायाम और प्राणायाम के माध्यम से मन और मस्तिष्क को निर्मल रखने का प्रयास करें ।
12) समय-समय पर ध्यान, प्रार्थना और भक्ति को माध्यम बनान्
कम बोलो, मीठा बोलो, अच्छे के लिए बोलो
बच्चों को अनुशासन में रहने और रखने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है । ये हिंसा कहीं और नहीं अपने ही घरों और स्कूलों में होती है । बच्चों पर की गई हिंसा किसी भी रूप में हो सकती है, चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो या फिर भावनात्मक ।
धर्म के दस लक्षणों में एक ‘सत्यता’ (सच्चाई) भी है । सामान्य तौर पर यह लक्षण वाणी से जुड़ा है, अर्थात जो जैसा देखा, सुना या समझा गया है । यह हुई सत्य की सरल परिभाषा । परंतु ‘सत्यता’ का अर्थ केवल यह नहीं है । सत्यता का अर्थ है धर्म की आत्मा को प्रज्वलित करना । उदाहरण के तौर पर, यदि कोई व्यक्ति किसी असाध्य रोग से पीडि़त है तो उसे ऐसा डाक्टरी तथ्य बताना ’सत्य’ का पालन नहीं है, जिसकी हतक से वह कल के बजाय आज ही मर जाए । ऐसी सचाई तो झूठ बोलने से भी बुरी है ।
इसी प्रकार यदि दो व्यक्तियों या दो पक्षों के संबंधों में बिगाड़ है और दोनों ही अडियल हैं, तो दोनों की कही हुई बातें सच-सच एक-दूसरे को बताकर उनके बीच कड़वाहट बढ़ाने से कहीं अच्छा है दोनों के बीच ईमानदारी से समझौता कराने का प्रयास करना । एक समय था जब अपनी कमियों या खामियों को स्वीकार कर लेने वालों को लोग आदर की दृष्टि से देखते थे । लेकिन अब सब कुछ बदल सा गया है । अपनी कमजोरियां बताने का मतलब है अपनी खिल्ली उड़वाना । लोग अक्सर दूसरों के नकारात्मक व उदासीन पक्ष को प्रसारित कर उनके नाम और पद को बदनाम करते हैं और खुश होते हैं ।
ऐसे कई उदाहरण हैं । एक नवविवाहिता को विश्वास में लेकर कहा गया कि वह अपने बीते हुए कल की सारी घटनाएं अपने पति को निर्भय होकर बता दे । उसे प्रेम और क्षमादान दिया जाएगा । परंतु ऐसा न कर एक बदले की भावना पाल ली गई और उसका जीवन नारकीय बना दिया गया । उचित तो यही था कि अपने पिछले जीवन की बातों के बारे में वह पूरी तरह मौन रहती, क्योंकि पता चलने पर सिवाय समस्याओं और दुखों के कुछ नहीं मिला ।
कुछ दिन पहले नवभारत टाइम्स में एक समाचार छपा था कि किस तरह एक महिला को ‘सच का सामना’ करना भारी पड़ा । एक टीवी चैनल पर सच का सामना देखते हुए एक पति ने अपनी पत्नी से विवाह से पूर्व के सच का खुलासा करने को कहा । पत्नी ने बताया कि शादी से पहले उसका एक प्रेम संबंध था । पति-पत्नी के सच को सहन नहीं कर सका और आत्महत्या कर ली । समाजशास्त्री मानते हैं, कि जीवन में कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें रहस्य रखना ही बेहतर होता है । कई बार इनके खुलने से लोगों के जीवन में भूचाल आ जाता है ।
निस्संदेह सचाई एक श्रेष्ठ गुण है । कथनी और करनी के बीच तालमेल होना श्रेयस्कर है । परंतु स्मरण रहे कि बीते हुए कल की बातों के बारे में मौन रहना अधिक श्रेष्ठतर है, क्योंकि उनका खुलासा करने से हानि की संभावना कहीं अधिक है । ऐसी परिस्थितियों में मौन ही सत्यता है । हालांकि झूठ किसी भी स्थिति में सच से बेहतर नहीं हो सकता ।
हिंसक होकर नहीं, प्यार से बताये गलतियों को
बच्चों को अनुशासन में रहने और रखने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है । ये हिंसा कहीं और नहीं अपने ही घरों और स्कूलों में होती है । बच्चों पर की गई हिंसा किसी भी रूप में हो सकती है, चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो या फिर भावनात्मक ।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया हैं, कि दो से 14 साल की आयु के बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए तीन चौथाई बच्चों के साथ हिंसा का सहारा लिया जाता है । इसमें आधे बच्चों को शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है । जेनेवा में आयोजित यूएन की मानवाधिकार समिति के बैठक में यूनिसेफ ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत किया । यह रिपोर्ट दुनिया के ३३ निचले और मध्यम आय वाले देशों के 1-14 आयुवर्ग के बच्चों पर आधारित थी, जिसमें बच्चों के अभिभावक भी शामिल थे । बैठक में यूएन विशेषज्ञों ने तय किया कि बच्चों के प्रति हिंसात्मक रवैया न अपनाने के लिए जागरूकता फैलाई जाये। इसको रोकने लिए दुनियाभर की सरकारें कानूनी कदम उठायें ।
रिपोर्ट में कहा गया है, कि बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए घरों में आठ तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है । इसमें कुछ शारीरिक हैं, तो कुछ मानसिक । शारीरिक हिंसा में बच्चों को पीटना या जोर से झकझोरना आदि है, जबकि मानसिक हिंसा में बच्चों पर चीखना या नाम लेकर डांटना आदि है ।
थोड़े देर के लिए यह बात ठीक भी है, लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है जो काफी खतरनाक है । बचपन में बोया गया हिंसा का ये बीज युवा होते-होते विषधर वटवृक्ष का रूप ले लेता है, जो किसी भी रूप में अच्छा नहीं है । यह सच है कि शिक्षा और शिष्टाचार सिखाने के लिए अनुशासन जरूरी है । हो सकता है, अनुशासन के लिए दंड भी आवश्यक हो, लेकिन दंड इतना कभी नहीं होना चाहिए कि बच्चों के कोमल मन और उसके स्वाभिमान पर चोट करे, उसकी कोमल भावनाएं आहत हो ।
बच्चों पर किये या हुए हिंसक और हृदय विदारक अत्याचार न केवल उनके बाल सुलभ मन को कुंठित करते हैं, बल्कि उनके मन में एक बात घर कर जाती है, कि बड़ों (सबलों) को छोटों (निर्बल) पर हिंसा करने का अधिकार है । बाल सुलभ मन पर घर कर जाने वाली यही बात, कुंठा आगे चलकर निजी जिंदगी और सामाजिक जीवन में विषवेल के रूप में दिखाई देता है । गलती करना इंसान कि फितरत है, और गलती को सुधार लेना इंसान कि बुद्धिमता का परिचायक । गलती कोई भी करे, एहसास होने पर उसे भी दुख होता है । गलती पर दंड देने या प्रताड़ित करने से हो चुकी गलती को सुधारा नहीं जा सकता है । प्रताड़ित करने और मन को आहत करने के बजाये उसे बताया जाना चाहिए कि गलती हुई तो क्यों और कैसे हुई? उसके नुकसान का आंकलन बच्चों से ही कराएँ।
गलती का एहसास कराने के लिए हिंसक होने की जरूरत नहीं है, प्यार से बताएं । प्यार हर काम को आसन करता है । यह मुश्किल तो है, लेकिन दुश्कर नहीं और परिणाम सौ प्रतिशत ।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया हैं, कि दो से 14 साल की आयु के बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए तीन चौथाई बच्चों के साथ हिंसा का सहारा लिया जाता है । इसमें आधे बच्चों को शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है । जेनेवा में आयोजित यूएन की मानवाधिकार समिति के बैठक में यूनिसेफ ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत किया । यह रिपोर्ट दुनिया के ३३ निचले और मध्यम आय वाले देशों के 1-14 आयुवर्ग के बच्चों पर आधारित थी, जिसमें बच्चों के अभिभावक भी शामिल थे । बैठक में यूएन विशेषज्ञों ने तय किया कि बच्चों के प्रति हिंसात्मक रवैया न अपनाने के लिए जागरूकता फैलाई जाये। इसको रोकने लिए दुनियाभर की सरकारें कानूनी कदम उठायें ।
रिपोर्ट में कहा गया है, कि बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए घरों में आठ तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है । इसमें कुछ शारीरिक हैं, तो कुछ मानसिक । शारीरिक हिंसा में बच्चों को पीटना या जोर से झकझोरना आदि है, जबकि मानसिक हिंसा में बच्चों पर चीखना या नाम लेकर डांटना आदि है ।
थोड़े देर के लिए यह बात ठीक भी है, लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है जो काफी खतरनाक है । बचपन में बोया गया हिंसा का ये बीज युवा होते-होते विषधर वटवृक्ष का रूप ले लेता है, जो किसी भी रूप में अच्छा नहीं है । यह सच है कि शिक्षा और शिष्टाचार सिखाने के लिए अनुशासन जरूरी है । हो सकता है, अनुशासन के लिए दंड भी आवश्यक हो, लेकिन दंड इतना कभी नहीं होना चाहिए कि बच्चों के कोमल मन और उसके स्वाभिमान पर चोट करे, उसकी कोमल भावनाएं आहत हो ।
बच्चों पर किये या हुए हिंसक और हृदय विदारक अत्याचार न केवल उनके बाल सुलभ मन को कुंठित करते हैं, बल्कि उनके मन में एक बात घर कर जाती है, कि बड़ों (सबलों) को छोटों (निर्बल) पर हिंसा करने का अधिकार है । बाल सुलभ मन पर घर कर जाने वाली यही बात, कुंठा आगे चलकर निजी जिंदगी और सामाजिक जीवन में विषवेल के रूप में दिखाई देता है । गलती करना इंसान कि फितरत है, और गलती को सुधार लेना इंसान कि बुद्धिमता का परिचायक । गलती कोई भी करे, एहसास होने पर उसे भी दुख होता है । गलती पर दंड देने या प्रताड़ित करने से हो चुकी गलती को सुधारा नहीं जा सकता है । प्रताड़ित करने और मन को आहत करने के बजाये उसे बताया जाना चाहिए कि गलती हुई तो क्यों और कैसे हुई? उसके नुकसान का आंकलन बच्चों से ही कराएँ।
गलती का एहसास कराने के लिए हिंसक होने की जरूरत नहीं है, प्यार से बताएं । प्यार हर काम को आसन करता है । यह मुश्किल तो है, लेकिन दुश्कर नहीं और परिणाम सौ प्रतिशत ।
पापा जल्दी न आना...
पापा जो बचपन में हमारा ख्याल रखते हैं। पापा जो युवावस्था में हमें सही मार्ग दिखाते हैं और दुनिया से बचाते हैं । और वही पापा एक दिन हमारे लिए आंख बचाने की 'वस्तु' हो जाते हैं। वस्तु, जी हां 'वस्तु' क्योंकि किसी वस्तु का ही हम उपयोग करते हैं। जिनसे हमें प्यार होता है, उनके लिए हमारे दिल में सम्मान और समर्पण की भावना होती है, लेकिन आधुनिकता की होड़ में शामिल कुछ युवतियों में पापा को सिर्फ वस्तु बनाने की होड़ है। 'माई पापा इज माई एटीम...' कनाट प्लेस में बिकती टी-शर्ट को पहने एक युवती शायद यही बताना चाह रही थी।
राजौरी गार्डन का मेट्रो स्टेशन। जून महीने की चिलचिलाती धूप में एक पिता अपना स्कूटर लिए खड़ा है। उसके बगल में ही लाल रंग की हुण्डई आई10 गाड़ी में एसी की हवा खाता एक युवक गुनगुना रहा है। उसकी नज़र बार-बार घड़ी पर है। लो-वेस्ट जींस और टॉप पहने, चश्मा को सिर पर टिकाए एक युवती मेट्रो स्टेशन की सीढ़ी उतरती है। गाड़ी के अन्दर बैठा युवक गाड़ी से उतरते हुए स्टेशन की ओर लपकता है कि अचानक लड़की की नज़र स्कूटर पर बैठे पिता पर पड़ती है । युवती युवक की जगह स्कूटर की ओर मुड़ जाती है। युवक उधर मुड़ता है कि अचानक युवती की आवाज उसे सुनाई देती है, 'पापा आप इतनी जल्दी आ गए! आपको इतना इन्तजार करने की क्या जरूरूत थी!' पापा, 'देखती नहीं कितनी धूप है। मैंने सोचा, तुम्हें इन्तजार न करना पड़े इसलिए पहले ही आ गया।'
युवक निराश और युवती की आंखों और होठों पर मन्द-मन्द मुस्कान...। पापा के साथ स्कूटर पर बैठकर युवती फिर से मुस्कुराई । वह युवक गाड़ी में बैठकर उनके पीछे-पीछे हो लेता है। अन्दर से युवक की भावना एक के बाद इशारे व फ़्लाइंग किस के जरिए बाहर आने लगती है और युवती अपना हाथ हल्का खोलकर उसके इशारों व किसों को थामने की कोशिश में लग जाती है। उसकी आंखों में अभी भी चंचलता है। उस चंचलता में प्रेमी की तड़प पर प्रेमिका की शोखी झलकती है। पापा पूछते हैं, 'बेटा ठीक से बैठी हो न!' 'हां पापा, आप बस गाड़ी चलाइए', युवती ने कहा। उस स्कूटर में साइड मिरर भी नहीं है, जिससे युवती और निश्चिंत है । युवक कुछ दूर तक स्कूटर के पीछे चलता है, स्टेरिंग पर मुक्के बरसाता है और प्रेमिका की आंखों की शरारत को भांप कर हाथ दिल पर रखकर आहें भरता है और आगे से यू टर्न लेकर निकल पड़ता है।
राजौरी गार्डन का मेट्रो स्टेशन। जून महीने की चिलचिलाती धूप में एक पिता अपना स्कूटर लिए खड़ा है। उसके बगल में ही लाल रंग की हुण्डई आई10 गाड़ी में एसी की हवा खाता एक युवक गुनगुना रहा है। उसकी नज़र बार-बार घड़ी पर है। लो-वेस्ट जींस और टॉप पहने, चश्मा को सिर पर टिकाए एक युवती मेट्रो स्टेशन की सीढ़ी उतरती है। गाड़ी के अन्दर बैठा युवक गाड़ी से उतरते हुए स्टेशन की ओर लपकता है कि अचानक लड़की की नज़र स्कूटर पर बैठे पिता पर पड़ती है । युवती युवक की जगह स्कूटर की ओर मुड़ जाती है। युवक उधर मुड़ता है कि अचानक युवती की आवाज उसे सुनाई देती है, 'पापा आप इतनी जल्दी आ गए! आपको इतना इन्तजार करने की क्या जरूरूत थी!' पापा, 'देखती नहीं कितनी धूप है। मैंने सोचा, तुम्हें इन्तजार न करना पड़े इसलिए पहले ही आ गया।'
युवक निराश और युवती की आंखों और होठों पर मन्द-मन्द मुस्कान...। पापा के साथ स्कूटर पर बैठकर युवती फिर से मुस्कुराई । वह युवक गाड़ी में बैठकर उनके पीछे-पीछे हो लेता है। अन्दर से युवक की भावना एक के बाद इशारे व फ़्लाइंग किस के जरिए बाहर आने लगती है और युवती अपना हाथ हल्का खोलकर उसके इशारों व किसों को थामने की कोशिश में लग जाती है। उसकी आंखों में अभी भी चंचलता है। उस चंचलता में प्रेमी की तड़प पर प्रेमिका की शोखी झलकती है। पापा पूछते हैं, 'बेटा ठीक से बैठी हो न!' 'हां पापा, आप बस गाड़ी चलाइए', युवती ने कहा। उस स्कूटर में साइड मिरर भी नहीं है, जिससे युवती और निश्चिंत है । युवक कुछ दूर तक स्कूटर के पीछे चलता है, स्टेरिंग पर मुक्के बरसाता है और प्रेमिका की आंखों की शरारत को भांप कर हाथ दिल पर रखकर आहें भरता है और आगे से यू टर्न लेकर निकल पड़ता है।
दृश्य नंबर-दो...
रात दस बजे के मेट्रो के पहले डिब्बे में यात्रा कर रहा एक लड़का और एक लड़की एक-दूसरे के इतने करीब हैं कि उनकी सांस एक-दूसरे से टकरा रही है। आजू-बाजू के लोगों की नज़रें उन पर गड़ी हैं । जमाने से बेपरवाह दोनों एक-दूसरे की कमर में बाहें डाले हैं । राजीव चौक से द्वारका मोड़ स्टेशन के बीच तिलकनगर स्टेशन आ चुका है, तभी लड़की का मोबाइल बज उठता है। 'पापा हैं', युवती युवक से कहती है। 'जी पापा, पापा अभी मोतीनगर ही पहुंची हूं। आप आराम से मुझे लेने आना।' लोग आश्चर्य से उसे देखते हैं। उसने अपने पापा से झूठ बोला है। वह कई स्टेशन आगे पहुंच चुकी है और खुद को पीछे बता रही है। युवक उसके गाल पर हाथ फेरता है और फिर मुस्कुरा उठता है । युवक, 'तुमने पापा को अच्छा उल्लू बनाया।' लड़की मुस्कुराती है।
सचमुच पापा जल्दी न आना...यहां तुमसे भी जरूरी कोई है जिसे मेरा इन्तजार है! तुम बाद में भी आओगे तो फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन उसके साथ एक-एक पल कीमती है। पापा तुम सचमुच जल्दी मत आना.. ये घटनाएं न जाने कहां से मेरे जेहन में कौंध जाती है! सोचा पाठकों से भी बांटूं...।
Wednesday, April 27, 2011
मां की जगह दोस्त बनकर समझें बेटियों को
बेटी अब बड़ी हो रही है । पहले स्कूल जाती थी तो होमवर्क पूरा कराने की चिन्ता सताती थी अब बड़ी हो रही है तो दस तरह की बातें दिमाग में घूमने लगी हैं । मां की चिन्ता तो खैर कभी खत्म ही नहीं होती लेकिन अगर आपकी बेटी किशोर अवस्था में कदम रख रही है तो लाजमी है कि आप भी अपनी बेटी को लेकर सर्तक हो जाती हैं । उसे घर समय से आने के लिए कहती हैं, रात को मोबाइल पर ज्यादा देर तक बात करने से टोकती हैं, यह कहकर की तुम्हें नहीं पता जमाना बहुत खराब है । कोई बात आपकी बेटी आपको समझाना भी चाहे तो आप कहती हैं कि तुम ही हो बस समझदार इस घर में, हमने तो दुनिया देखी ही नहीं । फिर किसी बात में आप सही भी हों तो आपको `बच्चा´ करार कर दिया जाता है, वहीं अगर आप अपने मन से बाहर घूमने का प्लान बना लें तो आपको एकदम बड़ा बता दिया जाता है । यह कहकर कि इतनी बड़ी हो गई अब तक समझ नहीं आई ।
मनोचिकित्सक कहते हैं कि इस अवस्था को समझना बहुत जरूरी है । ऐसे में मां का रोल सबसे महत्वपूर्ण होता है । अपनी बेटी के मन में उठ रहीं तमाम तरह की जिज्ञासाओं को मां ही शान्त कर सकती है । यह एक ऐसी अवस्था होती है जब बेटी की दुनिया बड़ी होने लगती है । ऐसी बहुत सी बातें उसके दिल में चलती रहती हैं जिसे बस वह मन ही मन सोचती रह जाती है । ऐसे में मां को चाहिए कि वह मां न बनकर उसकी दोस्त बने । एक ऐसी दोस्त जिससे वह बेझिझक अपनी सारी बातें कहें । कई बार ऐसा भी होता है जब बेटी को कुछ सवाल पूछने में अपनी मां से शर्म आती है या फिर कई बातें वह मां से छुपाती है । बजाए रोक-टाक के इन बातों को समझने की कोशिश करें ।
मां से अधिक सहेली बनने की कोशिश करें
आपकी बेटी के लिए यह उम्र सपनों की दुनिया के समान होती है । सपनों के लगे पंख उसे एक ऐसी दुनिया दिखाने लगते हैं जो हकीकत से परे है । सभी रिश्ते उसे अपने लगने लगते हैं । अब आपके लिए उसे हकीकत की दुनिया को दिखाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है । टोका-टोकी की बजाए ऐसे में उसकी सहेली बनकर अगर आप समझाएंगी तो आपकी राहें आसान हो जाएंगी ।
आपकी बेटी के लिए यह उम्र सपनों की दुनिया के समान होती है । सपनों के लगे पंख उसे एक ऐसी दुनिया दिखाने लगते हैं जो हकीकत से परे है । सभी रिश्ते उसे अपने लगने लगते हैं । अब आपके लिए उसे हकीकत की दुनिया को दिखाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है । टोका-टोकी की बजाए ऐसे में उसकी सहेली बनकर अगर आप समझाएंगी तो आपकी राहें आसान हो जाएंगी ।
उम्र के साथ बढ़ता है दोस्ती का दायरा
ऐसा कई बार होता है कि मां को अपने बेटी की संगत से परेशानी हो जाती है । लाजमी है कि बेटी कॉलेज जाएगी तो दोस्त भी बनेगें उसमें कुछ लड़कियां होंगी तो लड़के भी होंगे । अब दिक्कत तब आती है जब मां बेटी को कुछ दोस्तों से दूरी बनाए रखने को कहे । तब नई पीढ़ी को लगता है कि वह सही । मम्मी को यह बात कैसे समझाए । ऐसे में आपको चाहिए कि आप थोड़ी तसल्ली से अपनी बेटी की बात भी सुनकर देखें । हो सकता है कि कुछ बातों में वह भी सही हो और अगर कुछ बातों में आप सही हैं तो उसके साथ प्यार से बैठकर उस बात को बताएं, बजाए कि उस पर वह बात थोपी जाए ।
ऐसा कई बार होता है कि मां को अपने बेटी की संगत से परेशानी हो जाती है । लाजमी है कि बेटी कॉलेज जाएगी तो दोस्त भी बनेगें उसमें कुछ लड़कियां होंगी तो लड़के भी होंगे । अब दिक्कत तब आती है जब मां बेटी को कुछ दोस्तों से दूरी बनाए रखने को कहे । तब नई पीढ़ी को लगता है कि वह सही । मम्मी को यह बात कैसे समझाए । ऐसे में आपको चाहिए कि आप थोड़ी तसल्ली से अपनी बेटी की बात भी सुनकर देखें । हो सकता है कि कुछ बातों में वह भी सही हो और अगर कुछ बातों में आप सही हैं तो उसके साथ प्यार से बैठकर उस बात को बताएं, बजाए कि उस पर वह बात थोपी जाए ।
विश्वास भरे रिश्ते
किसी भी मां के लिए यह सबसे जरूरी होता है कि वह अपनी बेटी पर पूरा विश्वास करे । जब तक आप ही अपनी बेटी पर विश्वास नहीं करेंगी तो आप कैसे यह मान लेंगी कि वह सही राह पर चल रही है । ऐसे में नाइट आउट या फिर किसी पार्टी के लिए हमेशा ही मां-बेटी के बीच तकरार चलती है । मां ऐसी पार्टियों में जाने से टोकती है वहीं बेटी को बात बुरी लग जाती है । बेटी को लगता है कि मां उस पर विश्वास नहीं करतीं, तभी तो उसे ऐसा कह रही है । ऐसे में मां को चाहिए कि उसे सही तरह से बताएं कि उसके लिए क्या सही है और अगर वह ऐसा कर भी रही है तो क्यों । मां को चाहिए कि वह जेनरेशन गैप को समझते हुए अपनी बात रखें
किसी भी मां के लिए यह सबसे जरूरी होता है कि वह अपनी बेटी पर पूरा विश्वास करे । जब तक आप ही अपनी बेटी पर विश्वास नहीं करेंगी तो आप कैसे यह मान लेंगी कि वह सही राह पर चल रही है । ऐसे में नाइट आउट या फिर किसी पार्टी के लिए हमेशा ही मां-बेटी के बीच तकरार चलती है । मां ऐसी पार्टियों में जाने से टोकती है वहीं बेटी को बात बुरी लग जाती है । बेटी को लगता है कि मां उस पर विश्वास नहीं करतीं, तभी तो उसे ऐसा कह रही है । ऐसे में मां को चाहिए कि उसे सही तरह से बताएं कि उसके लिए क्या सही है और अगर वह ऐसा कर भी रही है तो क्यों । मां को चाहिए कि वह जेनरेशन गैप को समझते हुए अपनी बात रखें
Monday, March 14, 2011
माँ के मन की बात
रमिया माँ है
वह अटरिया में
अकेले बैठे-बैठे
बुन रही है
अपना भविष्य
यादों के अनमोल
और उलझे धागों से,
उसके सामने
बिखरे हैं
सवाल ही सवाल
वो सालों से खोज रही है
उन अनसुलझे
प्रश्नों के उत्तर
लेकिन आज तक भी
नहीं मिल पाया है उसे
कोई भी उत्तर ।
आज भी वे प्रश्न
प्रश्न ही बने हुए हैं
वह जी रही है आज भी
और जीती रहेगी
युगों-युगों तक
अपने सवालों के
उत्तर पाने के लिए।
वह एक माँ है
जिसने झेले हैं
अनेक झंझावात।
वह अपने ही मन से
पूछ रही है पहेली -
क्यों नहीं है उसको
बोलने का अधिकार
या फिर अपनी बात को
कहने का अधिकार,
क्यों नहीं है उसे
अपनी पीड़ा को
बाँटने का अधिकार,
क्यों नहीं है?
ग़लत को ग़लत
कहने का अधिकार ।
क्यों उसके चारों ओर
लगा दी जाती है
कैक्टस की बाड़
क्यों कर दिया जाता है
उसे हमेशा खामोश
क्यों नहीं
बोलने दिया जाता उसे ?
यह प्रश्न अनवरत
उठता रहता है
उसके भोले मन में,
बिजली-सी कौंधती रहती है
उसके मस्तिष्क में,
बचपन से अब तक
कभी भी अपनी बात को
निर्द्वंद्व होकर कहने की हिम्मत
नहीं जुटा पाई है वह ।
जब भी कुछ कहने का
करती है प्रयास
मुँह खोलने का
करती है साहस
वहीं लगा दिया जाता है
चुप रहने का विराम ।
आठ की अवस्था हो
या फिर साठ की
वही स्थिति,वही मानसिकता
आखिर किससे कहे
अपनी करुण-कथा
और किसको सुनाए
अपनी गहन व्यथा ।
जन्म लेते ही
समाज द्वारा तिरस्कार
पिता से दुत्कार
फिर भाइयों के गुस्से की मार
ससुराल में पति के अत्याचार
सास-ननद के कटाक्षों के वार
वृद्धावस्था में
बेटे की फटकार
बहू का विषैला व्यवहार
सब कुछ सहते-सहते
टूट जाती है वह,
क्योंकि उसे तो मिले हैं
विरासत में
सब कुछ सहने और
कुछ न कहने के संस्कार ।
यदि ऐसा ही रहा
समाज का बर्ताव
मिलते रहे
उसे घाव पर घाव,
ऐसी ही रही चुप्पी
चारों ओर
तो शायद मन की घुटन
तोड़ देगी अंतर्मन को
अंदर-ही-अंदर,
फैलता रहेगा विष
घुटती रहेंगी साँसें,
टूटती रहेंगी आसें
तो जिस बात को
वह करना चाहती है अभिव्यक्त
वह उसके साथ ही चली जाएगी,
फिर इसी तरह
घुटती रहेंगी बेटियाँ,
ऐसे ही टूटता रहेगा
उनका तन और मन,
होते रहेंगे अत्याचार;
होती रहेंगी वे
समाज की घिनौनी
मानसिकता का शिकार |
कब बदलेगा समय
कब बदलेगी मानसिकता
कब समाज के कथित ठेकेदार
समाज की चरमराई व्यवस्था को
मजबूती देने के लिए
आगे आएँगे
क़दम बढ़ाएँगे,
जब माँ के मन की बात
उसकी पीड़ा,उसकी चुभन,
उसके मन का संत्रास
समझेगी आज की पीढ़ी,
विश्वास है उसे
कि वह दिन आएगा
जरूर आएगा ।
वह अटरिया में
अकेले बैठे-बैठे
बुन रही है
अपना भविष्य
यादों के अनमोल
और उलझे धागों से,
उसके सामने
बिखरे हैं
सवाल ही सवाल
वो सालों से खोज रही है
उन अनसुलझे
प्रश्नों के उत्तर
लेकिन आज तक भी
नहीं मिल पाया है उसे
कोई भी उत्तर ।
आज भी वे प्रश्न
प्रश्न ही बने हुए हैं
वह जी रही है आज भी
और जीती रहेगी
युगों-युगों तक
अपने सवालों के
उत्तर पाने के लिए।
वह एक माँ है
जिसने झेले हैं
अनेक झंझावात।
वह अपने ही मन से
पूछ रही है पहेली -
क्यों नहीं है उसको
बोलने का अधिकार
या फिर अपनी बात को
कहने का अधिकार,
क्यों नहीं है उसे
अपनी पीड़ा को
बाँटने का अधिकार,
क्यों नहीं है?
ग़लत को ग़लत
कहने का अधिकार ।
क्यों उसके चारों ओर
लगा दी जाती है
कैक्टस की बाड़
क्यों कर दिया जाता है
उसे हमेशा खामोश
क्यों नहीं
बोलने दिया जाता उसे ?
यह प्रश्न अनवरत
उठता रहता है
उसके भोले मन में,
बिजली-सी कौंधती रहती है
उसके मस्तिष्क में,
बचपन से अब तक
कभी भी अपनी बात को
निर्द्वंद्व होकर कहने की हिम्मत
नहीं जुटा पाई है वह ।
जब भी कुछ कहने का
करती है प्रयास
मुँह खोलने का
करती है साहस
वहीं लगा दिया जाता है
चुप रहने का विराम ।
आठ की अवस्था हो
या फिर साठ की
वही स्थिति,वही मानसिकता
आखिर किससे कहे
अपनी करुण-कथा
और किसको सुनाए
अपनी गहन व्यथा ।
जन्म लेते ही
समाज द्वारा तिरस्कार
पिता से दुत्कार
फिर भाइयों के गुस्से की मार
ससुराल में पति के अत्याचार
सास-ननद के कटाक्षों के वार
वृद्धावस्था में
बेटे की फटकार
बहू का विषैला व्यवहार
सब कुछ सहते-सहते
टूट जाती है वह,
क्योंकि उसे तो मिले हैं
विरासत में
सब कुछ सहने और
कुछ न कहने के संस्कार ।
यदि ऐसा ही रहा
समाज का बर्ताव
मिलते रहे
उसे घाव पर घाव,
ऐसी ही रही चुप्पी
चारों ओर
तो शायद मन की घुटन
तोड़ देगी अंतर्मन को
अंदर-ही-अंदर,
फैलता रहेगा विष
घुटती रहेंगी साँसें,
टूटती रहेंगी आसें
तो जिस बात को
वह करना चाहती है अभिव्यक्त
वह उसके साथ ही चली जाएगी,
फिर इसी तरह
घुटती रहेंगी बेटियाँ,
ऐसे ही टूटता रहेगा
उनका तन और मन,
होते रहेंगे अत्याचार;
होती रहेंगी वे
समाज की घिनौनी
मानसिकता का शिकार |
कब बदलेगा समय
कब बदलेगी मानसिकता
कब समाज के कथित ठेकेदार
समाज की चरमराई व्यवस्था को
मजबूती देने के लिए
आगे आएँगे
क़दम बढ़ाएँगे,
जब माँ के मन की बात
उसकी पीड़ा,उसकी चुभन,
उसके मन का संत्रास
समझेगी आज की पीढ़ी,
विश्वास है उसे
कि वह दिन आएगा
जरूर आएगा ।
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