Saturday, May 7, 2011

क्रोध



को‌ई भी चीज जब हमारे मनोनुकूल नहीं होती है, और धीरे-धीरे सहनशक्ति भी पार हो रही हो, तो उस स्थिति को रोकने के लि‌ए प्रकृति हमारे अंदर एक विस्फोट करती है, बस-वही विस्फोट क्रोध बनकर बाहर प्रकट होता है । आज कमोवेश ज्यादातर लोग समाज में क्रोधी स्वभाव के हो ग‌ए हैं । यह अत्यन्त ही चिन्ताजनक बात है । मनोवैज्ञानिक भी इस समस्या से निदान के लि‌ए जूझ रहे हैं । 

वस्तुतः इच्छा‌ओं की पूर्ति का न हो पाना ही क्रोध का कारण है । विज्ञान क्रोध को एक ‘एनर्जी’ मानता है और ‘एनर्जी’ का यह नियम है कि एक बार वह पैदा हो जाय, तो उसे नष्ट नहीं किया जा सकता है । इसका रूपान्तरण किया जा सकता है । क्रोध सबसे पहले इंसान की बुद्धि को क्षीण कर उसकी स्मरण शक्‍ति को समाप्त करता है । सोचने-समझने की शक्‍ति पूरी तरह से समाप्त हो जाती है । हर निर्णय व्यक्‍ति गलत लेने लगता है । क्रोध हमेशा मूर्खता से शुरू होता है, और पश्चाताप से समाप्त होता है । इसलि‌ए मर्यादित व्यक्‍ति इसकी पहली चिनगारी को शुरू होने से पहले ही समाप्त करने का प्रयास करता है । क्रोध के समय व्यक्‍ति अपना आपा खो बैठता है, श्वांसों की गति इतनी तेज हो जाती है कि व्यक्‍ति सीमित श्वासों की पूंजी के तरफ अपना ध्यान ही नहीं देता है । क्रोधी व्यक्‍ति की हमेशा की चिड़चिड़ापन उसकी आयु को कम करती है । महाराक्षस क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, इसीलि‌ए शास्त्रों में भी कहा गया है -‘क्रोधो वैवस्वतो राजा।’ क्रोधी व्यक्‍ति का रक्‍त संचार बढ़ने लगता है, थुथुने फूलने लगते हैं, भृकुटि तन जाती है । जो जान लेवा भी हो सकती है । क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है । 

आ‌इये ! क्रोध से बचने के लि‌ए कुछ सरल व सहज उपायों पर हम ध्यान देंः- 

1) सबसे पहले उनके साथ न बैठें, जिनके साथ बैठने पर आपको क्रोध आता है ।
2) क्रोध के समय मन की दिशा को बदलने का प्रयास करें । चित्रादि बनाकर मन को बहलायें ।
3) ज्यादा से ज्यादा प्रकृति के बीच रहें ।
4) दिन में पानी खूब पि‌एं । सर्दी का मौसम हो तो पाँंच-छः बार और यदि गर्मी है, तो कम से कम आठ-दस बार जरूर पीएं ।
5) प्रतिदिन प्रातःकाल अपने मन को श्वॉंस-प्रश्वास की क्रिया द्वारा स्वस्थ रखने का प्रयास करें ।
6) क्रोध के समय एकान्त स्थान में चले जा‌ऍं । शवासन में लेटकर मन को शांत करने का प्रयास करें ।
7) ज्यादा मिर्च-मसाले वाले भोजन अथवा तले हु‌ए पदार्थ कम से कम लें।
8) किसी भी कार्य को जल्दबाजी में न करें । भोजन चबाकर ठीक से लें। शीत्कारी प्राणायाम करें । जीभ को दांतों के बीच हल्का दबाकर अन्दर की ओर एक-दो बार श्वास लें ।
9) ज्यादा से ज्यादा मुस्कुराने के प्रयास करें । संगीत आदि गुनगुना सकें, तो ज्यादा अच्छा होगा ।
10) ज्यादा से ज्यादा उत्पन्न होने वाली कामना‌ओं, ऐष्णा‌ओं और वासना‌ओं पर नियंत्रण रखने का प्रयास करें ।
11) खुलकर हंसने का प्रयास करें और साथ ही बीती हु‌ई बात को लंबे समय तक ढोने का प्रयास न करें । वर्तमान में जीते हु‌ए व्यायाम और प्राणायाम के माध्यम से मन और मस्तिष्क को निर्मल रखने का प्रयास करें ।
12) समय-समय पर ध्यान, प्रार्थना और भक्‍ति को माध्यम बनान्

कम बोलो, मीठा बोलो, अच्छे के लि‌ए बोलो


बच्चों को अनुशासन में रहने और रखने के लि‌ए हिंसा का सहारा लिया जाता है । ये हिंसा कहीं और नहीं अपने ही घरों और स्कूलों में होती है । बच्चों पर की गई हिंसा किसी भी रूप में हो सकती है, चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो या फिर भावनात्मक । 

धर्म के दस लक्षणों में एक ‘सत्यता’ (सच्चा‌ई) भी है । सामान्य तौर पर यह लक्षण वाणी से जुड़ा है, अर्थात जो जैसा देखा, सुना या समझा गया है । यह हु‌ई सत्य की सरल परिभाषा । परंतु ‘सत्यता’ का अर्थ केवल यह नहीं है । सत्यता का अर्थ है धर्म की आत्मा को प्रज्वलित करना । उदाहरण के तौर पर, यदि को‌ई व्यक्‍ति किसी असाध्य रोग से पीडि़त है तो उसे ऐसा डाक्टरी तथ्य बताना ’सत्य’ का पालन नहीं है, जिसकी हतक से वह कल के बजाय आज ही मर जा‌ए । ऐसी सचा‌ई तो झूठ बोलने से भी बुरी है । 

इसी प्रकार यदि दो व्यक्‍तियों या दो पक्षों के संबंधों में बिगाड़ है और दोनों ही अडियल हैं, तो दोनों की कही हु‌ई बातें सच-सच एक-दूसरे को बताकर उनके बीच कड़वाहट बढ़ाने से कहीं अच्छा है दोनों के बीच ईमानदारी से समझौता कराने का प्रयास करना । एक समय था जब अपनी कमियों या खामियों को स्वीकार कर लेने वालों को लोग आदर की दृष्टि से देखते थे । लेकिन अब सब कुछ बदल सा गया है । अपनी कमजोरियां बताने का मतलब है अपनी खिल्ली उड़वाना । लोग अक्सर दूसरों के नकारात्मक व उदासीन पक्ष को प्रसारित कर उनके नाम और पद को बदनाम करते हैं और खुश होते हैं । 

ऐसे क‌ई उदाहरण हैं । एक नवविवाहिता को विश्‍वास में लेकर कहा गया कि वह अपने बीते हु‌ए कल की सारी घटना‌एं अपने पति को निर्भय होकर बता दे । उसे प्रेम और क्षमादान दिया जा‌एगा । परंतु ऐसा न कर एक बदले की भावना पाल ली ग‌ई और उसका जीवन नारकीय बना दिया गया । उचित तो यही था कि अपने पिछले जीवन की बातों के बारे में वह पूरी तरह मौन रहती, क्योंकि पता चलने पर सिवाय समस्या‌ओं और दुखों के कुछ नहीं मिला । 

कुछ दिन पहले नवभारत टा‌इम्स में एक समाचार छपा था कि किस तरह एक महिला को ‘सच का सामना’ करना भारी पड़ा । एक टीवी चैनल पर सच का सामना देखते हु‌ए एक पति ने अपनी पत्‍नी से विवाह से पूर्व के सच का खुलासा करने को कहा । पत्‍नी ने बताया कि शादी से पहले उसका एक प्रेम संबंध था । पति-पत्‍नी के सच को सहन नहीं कर सका और आत्महत्या कर ली । समाजशास्त्री मानते हैं, कि जीवन में कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें रहस्य रखना ही बेहतर होता है । क‌ई बार इनके खुलने से लोगों के जीवन में भूचाल आ जाता है । 

निस्संदेह सचा‌ई एक श्रेष्ठ गुण है । कथनी और करनी के बीच तालमेल होना श्रेयस्कर है । परंतु स्मरण रहे कि बीते हु‌ए कल की बातों के बारे में मौन रहना अधिक श्रेष्ठतर है, क्योंकि उनका खुलासा करने से हानि की संभावना कहीं अधिक है । ऐसी परिस्थितियों में मौन ही सत्यता है । हालांकि झूठ किसी भी स्थिति में सच से बेहतर नहीं हो सकता । 

हिंसक होकर नहीं, प्यार से बताये गलतियों को



बच्चों को अनुशासन में रहने और रखने के लि‌ए हिंसा का सहारा लिया जाता है । ये हिंसा कहीं और नहीं अपने ही घरों और स्कूलों में होती है । बच्चों पर की गई हिंसा किसी भी रूप में हो सकती है, चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो या फिर भावनात्मक । 

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया हैं, कि दो से 14 साल की आयु के बच्चों को अनुशासन में रखने के लि‌ए तीन चौथा‌ई बच्चों के साथ हिंसा का सहारा लिया जाता है । इसमें आधे बच्चों को शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है । जेनेवा में आयोजित यू‌एन की मानवाधिकार समिति के बैठक में यूनिसेफ ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत किया । यह रिपोर्ट दुनिया के ३३ निचले और मध्यम आय वाले देशों के 1-14 आयुवर्ग के बच्चों पर आधारित थी, जिसमें बच्चों के अभिभावक भी शामिल थे । बैठक में यू‌एन विशेषज्ञों ने तय किया कि बच्चों के प्रति हिंसात्मक रवैया न अपनाने के लि‌ए जागरूकता फैला‌ई जाये। इसको रोकने लि‌ए दुनियाभर की सरकारें कानूनी कदम उठायें । 

रिपोर्ट में कहा गया है, कि बच्चों को अनुशासन में रखने के लि‌ए घरों में आठ तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है । इसमें कुछ शारीरिक हैं, तो कुछ मानसिक । शारीरिक हिंसा में बच्चों को पीटना या जोर से झकझोरना आदि है, जबकि मानसिक हिंसा में बच्चों पर चीखना या नाम लेकर डांटना आदि है । 

थोड़े देर के लि‌ए यह बात ठीक भी है, लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है जो काफी खतरनाक है । बचपन में बोया गया हिंसा का ये बीज युवा होते-होते विषधर वटवृक्ष का रूप ले लेता है, जो किसी भी रूप में अच्छा नहीं है । यह सच है कि शिक्षा और शिष्टाचार सिखाने के लि‌ए अनुशासन जरूरी है । हो सकता है, अनुशासन के लि‌ए दंड भी आवश्यक हो, लेकिन दंड इतना कभी नहीं होना चाहि‌ए कि बच्चों के कोमल मन और उसके स्वाभिमान पर चोट करे, उसकी कोमल भावना‌एं आहत हो । 

बच्चों पर किये या हु‌ए हिंसक और हृदय विदारक अत्याचार न केवल उनके बाल सुलभ मन को कुंठित करते हैं, बल्कि उनके मन में एक बात घर कर जाती है, कि बड़ों (सबलों) को छोटों (निर्बल) पर हिंसा करने का अधिकार है । बाल सुलभ मन पर घर कर जाने वाली यही बात, कुंठा आगे चलकर निजी जिंदगी और सामाजिक जीवन में विषवेल के रूप में दिखा‌ई देता है । गलती करना इंसान कि फितरत है, और गलती को सुधार लेना इंसान कि बुद्धिमता का परिचायक । गलती को‌ई भी करे, एहसास होने पर उसे भी दुख होता है । गलती पर दंड देने या प्रताड़ित करने से हो चुकी गलती को सुधारा नहीं जा सकता है । प्रताड़ित करने और मन को आहत करने के बजाये उसे बताया जाना चाहि‌ए कि गलती हु‌ई तो क्यों और कैसे हुई? उसके नुकसान का आंकलन बच्चों से ही करा‌एँ। 

गलती का एहसास कराने के लि‌ए हिंसक होने की जरूरत नहीं है, प्यार से बता‌एं । प्यार हर काम को आसन करता है । यह मुश्किल तो है, लेकिन दुश्कर नहीं और परिणाम सौ प्रतिशत । 

पापा जल्दी न आना...





पापा जो बचपन में हमारा ख्याल रखते हैं। पापा जो युवावस्था में हमें सही मार्ग दिखाते हैं और दुनिया से बचाते हैं । और वही पापा एक दिन हमारे लिए आंख बचाने की 'वस्तु' हो जाते हैं। वस्तु, जी हां 'वस्तु' क्योंकि किसी वस्तु का ही हम उपयोग करते हैं। जिनसे हमें प्यार होता है, उनके लिए हमारे दिल में सम्मान और समर्पण की भावना होती है, लेकिन आधुनिकता की होड़ में शामिल कुछ युवतियों में पापा को सिर्फ वस्तु बनाने की होड़ है। 'माई पापा इज माई एटीम...' कनाट प्लेस में बिकती टी-शर्ट को पहने एक युवती शायद यही बताना चाह रही थी।
राजौरी गार्डन का मेट्रो स्टेशन। जून महीने की चिलचिलाती धूप में एक पिता अपना स्कूटर लिए खड़ा है। उसके बगल में ही लाल रंग की हुण्डई आई10 गाड़ी में एसी की हवा खाता एक युवक गुनगुना रहा है। उसकी नज़र बार-बार घड़ी पर है। लो-वेस्‍ट जींस और टॉप पहने, चश्मा को सिर पर टिकाए एक युवती मेट्रो स्टेशन की सीढ़ी उतरती है। गाड़ी के अन्दर बैठा युवक गाड़ी से उतरते हुए स्टेशन की ओर लपकता है कि अचानक लड़की की नज़र स्‍कूटर पर बैठे पिता पर पड़ती है । युवती युवक की जगह स्‍कूटर की ओर मुड़ जाती है। युवक उधर मुड़ता है कि अचानक युवती की आवाज उसे सुनाई देती है, 'पापा आप इतनी जल्दी आ गए! आपको इतना इन्तजार करने की क्या जरूरूत थी!' पापा, 'देखती नहीं कितनी धूप है। मैंने सोचा, तुम्हें इन्तजार न करना पड़े इसलिए पहले ही आ गया।'
युवक निराश और युवती की आंखों और होठों पर मन्द-मन्द मुस्कान...। पापा के साथ स्‍कूटर पर बैठकर युवती फिर से मुस्कुराई । वह युवक गाड़ी में बैठकर उनके पीछे-पीछे हो लेता है। अन्दर से युवक की भावना एक के बाद इशारे व फ़्लाइंग किस के जरिए बाहर आने लगती है और युवती अपना हाथ हल्का खोलकर उसके इशारों व किसों को थामने की कोशिश में लग जाती है। उसकी आंखों में अभी भी चंचलता है। उस चंचलता में प्रेमी की तड़प पर प्रेमिका की शोखी झलकती है। पापा पूछते हैं, 'बेटा ठीक से बैठी हो न!'  'हां पापा, आप बस गाड़ी चलाइए', युवती ने कहा। उस स्कूटर में साइड मिरर भी नहीं है, जिससे युवती और निश्चिंत है । युवक कुछ दूर तक स्कूटर के पीछे चलता है, स्टेरिंग पर मुक्के बरसाता है और प्रेमिका की आंखों की शरारत को भांप कर हाथ दिल पर रखकर आहें भरता है और आगे से यू टर्न लेकर निकल पड़ता है।
दृश्य नंबर-दो... 
रात दस बजे के मेट्रो के पहले डिब्बे में यात्रा कर रहा एक लड़का और एक लड़की एक-दूसरे के इतने करीब हैं कि उनकी सांस एक-दूसरे से टकरा रही है। आजू-बाजू के लोगों की नज़रें उन पर गड़ी हैं । जमाने से बेपरवाह दोनों एक-दूसरे की कमर में बाहें डाले हैं । राजीव चौक से द्वारका मोड़ स्टेशन के बीच तिलकनगर स्टेशन आ चुका है, तभी लड़की का मोबाइल बज उठता है। 'पापा हैं', युवती युवक से कहती है। 'जी पापा, पापा अभी मोतीनगर ही पहुंची हूं। आप आराम से मुझे लेने आना।' लोग आश्चर्य से उसे देखते हैं। उसने अपने पापा से झूठ बोला है। वह कई स्टेशन आगे पहुंच चुकी है और खुद को पीछे बता रही है। युवक उसके गाल पर हाथ फेरता है और फिर मुस्‍कुरा उठता है । युवक, 'तुमने पापा को अच्छा उल्लू बनाया।' लड़की मुस्कुराती है।
सचमुच पापा जल्दी न आना...यहां तुमसे भी जरूरी कोई है जिसे मेरा इन्तजार है! तुम बाद में भी आओगे तो फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन उसके साथ एक-एक पल कीमती है। पापा तुम सचमुच जल्दी मत आना.. ये घटनाएं न जाने कहां से मेरे जेहन में कौंध जाती है! सोचा पाठकों से भी बांटूं...। 

Wednesday, April 27, 2011

मां की जगह दोस्त बनकर समझें बेटियों को


 बेटी अब बड़ी हो रही है । पहले स्कूल जाती थी तो  होमवर्क पूरा कराने की चिन्ता सताती थी अब बड़ी हो रही है तो  दस तरह की बातें  दिमाग में घूमने लगी हैं । मां की चिन्ता तो खैर कभी खत्म ही नहीं होती लेकिन अगर आपकी बेटी किशोर अवस्था में कदम रख रही है तो  लाजमी है कि आप भी अपनी बेटी को लेकर सर्तक हो जाती हैं । उसे घर समय से आने के लिए कहती हैं, रात को मोबाइल पर ज्यादा देर तक बात करने से टोकती हैं, यह कहकर की तुम्हें नहीं पता जमाना बहुत खराब है । कोई बात आपकी बेटी आपको समझाना भी चाहे तो आप कहती हैं कि तुम ही हो बस समझदार इस घर में, हमने तो दुनिया देखी ही नहीं । फिर किसी बात में आप सही भी हों तो आपको `बच्चा´ करार कर दिया जाता है, वहीं अगर आप अपने मन से बाहर घूमने का प्लान  बना लें तो आपको एकदम बड़ा बता दिया जाता है । यह कहकर कि इतनी बड़ी हो गई अब तक समझ नहीं आई । 


मनोचिकित्सक कहते हैं कि इस अवस्था को समझना बहुत जरूरी है । ऐसे में मां का रोल सबसे महत्वपूर्ण होता है । अपनी बेटी के मन में उठ रहीं तमाम तरह की जिज्ञासाओं को मां ही शान्त कर सकती है । यह एक ऐसी अवस्था होती है जब बेटी की दुनिया बड़ी होने लगती है । ऐसी बहुत सी बातें उसके दिल में चलती रहती हैं जिसे बस वह मन ही मन सोचती रह जाती है । ऐसे में मां को चाहिए कि वह मां न बनकर उसकी दोस्त बने । एक ऐसी दोस्त जिससे वह बेझिझक अपनी सारी बातें कहें । कई बार ऐसा भी होता है जब बेटी को कुछ सवाल पूछने में अपनी मां से शर्म आती है या फिर कई बातें वह मां से छुपाती है । बजाए रोक-टाक के इन बातों को समझने की कोशिश करें ।
मां से अधिक सहेली बनने की कोशिश करें
आपकी बेटी के लिए यह उम्र सपनों की दुनिया के समान होती है । सपनों के लगे पंख उसे एक ऐसी दुनिया दिखाने लगते हैं जो हकीकत से परे है । सभी रिश्ते उसे अपने लगने लगते हैं । अब आपके लिए उसे हकीकत की दुनिया को दिखाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है । टोका-टोकी की बजाए ऐसे में उसकी सहेली बनकर अगर आप समझाएंगी तो आपकी राहें आसान हो जाएंगी ।
उम्र के साथ बढ़ता है दोस्‍ती का दायरा
ऐसा कई बार होता है कि मां को अपने बेटी की संगत से परेशानी हो जाती है । लाजमी है कि बेटी कॉलेज जाएगी तो दोस्त भी बनेगें उसमें कुछ लड़कियां होंगी तो लड़के भी होंगे । अब दिक्कत तब आती है जब मां बेटी को कुछ दोस्तों से दूरी बनाए रखने को कहे । तब नई पीढ़ी को लगता है कि वह सही । मम्मी को यह बात कैसे समझाए । ऐसे में आपको चाहिए कि आप थोड़ी तसल्ली से अपनी बेटी की बात भी सुनकर देखें । हो सकता है कि कुछ बातों में वह भी सही हो और अगर कुछ बातों में आप सही हैं तो उसके साथ प्यार से बैठकर उस बात को बताएं, बजाए कि उस पर वह बात थोपी जाए ।
विश्वास भरे रिश्‍ते
किसी भी मां के लिए यह सबसे जरूरी होता है कि वह अपनी बेटी पर पूरा विश्वास करे । जब तक आप ही अपनी बेटी पर विश्वास नहीं करेंगी तो आप कैसे यह मान लेंगी कि वह सही राह पर चल रही है । ऐसे में नाइट आउट या फिर  किसी पार्टी के लिए हमेशा ही मां-बेटी के बीच तकरार चलती है । मां ऐसी पार्टियों में जाने से टोकती है वहीं बेटी को बात बुरी लग जाती है । बेटी को लगता है कि मां उस पर विश्वास नहीं करतीं, तभी तो उसे ऐसा कह रही है । ऐसे में मां को चाहिए कि उसे सही तरह से बताएं कि उसके लिए क्या सही है और अगर वह ऐसा कर भी रही है तो क्यों । मां को चाहिए कि वह जेनरेशन गैप को समझते हुए अपनी बात रखें 

Monday, March 14, 2011

माँ के मन की बात

रमिया माँ है
वह अटरिया में
अकेले बैठे-बैठे
बुन रही है
अपना भविष्य
यादों के अनमोल
और उलझे धागों से,
उसके सामने
बिखरे हैं
सवाल ही सवाल
वो सालों से खोज रही है
उन अनसुलझे
प्रश्नों के उत्तर
लेकिन आज तक भी
नहीं मिल पाया है उसे
कोई भी उत्तर ।
आज भी वे प्रश्न
प्रश्न ही बने हुए हैं
वह जी रही है आज भी
और जीती रहेगी
युगों-युगों तक
अपने सवालों के
उत्तर पाने के लिए।
वह एक माँ है
जिसने झेले हैं
अनेक झंझावात।
वह अपने ही मन से
पूछ रही है पहेली -
क्यों नहीं है उसको
बोलने का अधिकार
या फिर अपनी बात को
कहने का अधिकार,
क्यों नहीं है उसे
अपनी पीड़ा को
बाँटने का अधिकार,
क्यों नहीं है?
ग़लत को ग़लत
कहने का अधिकार ।
क्यों उसके चारों ओर
लगा दी जाती है
कैक्टस की बाड़
क्यों कर दिया जाता है
उसे हमेशा खामोश
क्यों नहीं
बोलने दिया जाता उसे ?
यह प्रश्न अनवरत
उठता रहता है
उसके भोले मन में,
बिजली-सी कौंधती रहती है
उसके मस्तिष्क में,
बचपन से अब तक
कभी भी अपनी बात को
निर्द्वंद्व होकर कहने की हिम्मत
नहीं जुटा पाई है वह ।
जब भी कुछ कहने का
करती है प्रयास
मुँह खोलने का
करती है साहस
वहीं लगा दिया जाता है
चुप रहने का विराम ।
आठ की अवस्था हो
या फिर साठ की
वही स्थिति,वही मानसिकता
आखिर किससे कहे
अपनी करुण-कथा
और किसको सुनाए
अपनी गहन व्यथा ।
जन्म लेते ही
समाज द्वारा तिरस्कार
पिता से दुत्कार
फिर भाइयों के गुस्से की मार
ससुराल में पति के अत्याचार
सास-ननद के कटाक्षों के वार
वृद्धावस्था में
बेटे की फटकार
बहू का विषैला व्यवहार
सब कुछ सहते-सहते
टूट जाती है वह,
क्योंकि उसे तो मिले हैं
विरासत में
सब कुछ सहने और
कुछ न कहने के संस्कार ।
यदि ऐसा ही रहा
समाज का बर्ताव
मिलते रहे
उसे घाव पर घाव,
ऐसी ही रही चुप्पी
चारों ओर
तो शायद मन की घुटन
तोड़ देगी अंतर्मन को
अंदर-ही-अंदर,
फैलता रहेगा विष
घुटती रहेंगी साँसें,
टूटती रहेंगी आसें
तो जिस बात को
वह करना चाहती है अभिव्यक्त
वह उसके साथ ही चली जाएगी,
फिर इसी तरह
घुटती रहेंगी बेटियाँ,
ऐसे ही टूटता रहेगा
उनका तन और मन,
होते रहेंगे अत्याचार;
होती रहेंगी वे
समाज की घिनौनी
मानसिकता का शिकार |
कब बदलेगा समय
कब बदलेगी मानसिकता
कब समाज के कथित ठेकेदार
समाज की चरमराई व्यवस्था को
मजबूती देने के लिए
आगे आएँगे
क़दम बढ़ाएँगे,
जब माँ के मन की बात
उसकी पीड़ा,उसकी चुभन,
उसके मन का संत्रास
समझेगी आज की पीढ़ी,
विश्वास है उसे
कि वह दिन आएगा
जरूर आएगा ।

हां, सच से डर लगता है

रेखा...भगवती चरण वर्मा का वो उपन्यास जिसे पढ़ने का मौका मुझे कई बार मिला लेकिन हर बार किसी न किसी वजह से टल गया... रेखा समाज की परतों को खोलती एक अदभुत रचना है...जो हरयुग में अपनी शसक्त मौजूदगी दर्ज कराती रहेगी...

लेकिन दिक्कत ये कि जब मैने इस उपन्यास को पढ़ना शुरू किया, ठीक इसी समय स्टार प्लस पर एक प्रोग्राम शुरू हुआ सच का सामना...दोनो की विषयवस्तु एक, समाज का शारीरिक सच...
रेखा और सच का सामना में हिस्सा ले रही प्रतियोगियों की सच्चाई में फर्क सिर्फ इतना कि रेखा में भगवती चरण वर्मा जी ने जब-जब रेखा को शरीर के लिए कमजोर होते हुए दिखाया है...उसके तुरंत बाद रेखा के तर्क रखे हैं...रेखा क्यों बार-बार किसी पुरुष से संबंध बना लेती है, इसका कारण भी बताया जाता है...हालांकि हर दूसरे पल रेखा को लगता है कि  वो गलत कर रही है लेकिन हर अगले पल वो वही करती है...हालांकि, सच का सामना के प्रतियोगी जब-जब सच को बयां करते हैं तब-तब वो बड़े भावुक हो जाते हैं...उन्हें पश्चाताप होता है या नहीं ये पता नहीं...लेकिन चेहरे पर ऐसी लकीरें जरूर खिंच जाती है कि जैसे अगर पैसे का मोह न हो तो वो कभी इस सच को बयां करे ही नहीं...अमूमन समाज में ऐसे सच को बयां करता भी कौन है???
वैसे जीवन की कईएक ऐसी सच्चाई होती है जिसे हम कभी बयां नहीं करना चाहतें...और करते भी नहीं हैं...

पश्चिम की नकल बताई जा रही इस धारावाहिक को बंद करने की  मांग उठ रही है...संभव है कि इस प्रोग्राम का पर्दा गिर जाए...अगर ऐसा हुआ तो ये ठीक वैसे ही होगा जैसे कूड़े को बुहार कर दरी के नीचे छिपा देना...
ये बता पाना बड़ा कठिन है कि अगर हम पर्दे पर इस तरह के सच को देखने सुनने लगें तो हमारा क्या होगा? हमारे समाज का क्या होगा? हम पर कितना गलत असर पड़ेगा?
एक बड़ा सवाल यहां ये भी उठता है कि क्या हम पर और हमारे समाज पर सबसे ज्यादा असर टीवी का ही पड़ता है? सच का सामनामें जो सवाल पूछे जा रहे हैं और जो उसके जवाब दिए जा रहे हैं, उसका हमपर असर पड़ सकता है ये तर्क उनलोगों की तरफ से दिए जा रहे हैं जो लोग इस प्रोग्राम को बंद कराना चाहते हैं। शायद उन्हें लगता है कि प्रोग्राम बंद होने के बाद समाज की तमाम ऐसी विकृतियां खत्म हो जाएगी...ऐसा करना किसी बुरी चीज को देखकर अपनी आंखे बंद कर लेने जैसा है... हर समाज की अपनी सच्चाई होती है...उसके अपने संस्कार होते हैं...  
पांच प्रतियोगयों में अभी तक किसी ने ऐसा जवाब नहीं दिया है कि वो पति या पत्नीव्रता हैं...वो पर स्त्री और पर पुरुष के बारे में सोचते नहीं...ये उनकी अपनी सच्चाई है...ऐसा नहीं है कि एक ने दूसरे से सुन कर, सीख कर कुछ कहा है। सबके अपने अपने अनुभव हैं। ये हमारे बीच के लोग हैं और यकीनन थोड़े हिम्मती भी...वरना, कहां लोग अपनी ज़िंदगी के निजी पन्नों को खोल पाते हैं...ये साहस सबके पास नहीं होता...इसके लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए...और उन्हें अपने से अलग या भिन्न समझने की बिला वजह कवायद नहीं करनी चाहिए... 
इतनी हिम्मत तो रेखा में भी नहीं दिखती...वो भी जब पर पुरुष के साथ संबंध बना कर लौटती है तो अपने पति को नहीं बताती...हालांकि इस कोफ्त में वो रात भर जगती है...अपने आंसुओं से अपने बुजुर्ग पति के पैर धोती है...लेकिन कभी बता नहीं पाती...अपने आप में सिर्फ इतना कहती है..शरीर का अपना धर्म होता है....वो मन से हमेशा अपने पति की होती है लेकिन शरीर के लिए न जाने कहां कहां चली जाती है...यूं कहें कि कहां नहीं चली जाती है...पाठक अपने तरीके से रेखा को बयां करते हैं...रेखा आत्मिक रूप से जितनी पवित्र है शरीर को लेकर उसकी मानसिकता उतनी ही घटिया...लेकिन आदमी तो शरीर और मन का मेल है...वो पूरा ही तभी होता है...ये आप पर निर्भर करता है कि आप किसे तवज्जो देते हैं? शरीर को आत्मा को दिमाग को? या फिर रेखा की तरह समय के साथ साथ अलग अलग चीजों को...
रेखा  जमाने पहले लिखी गई है...सच का सामना आज का सच है...लेकिन दोनो में रत्ती भर का फर्क नहीं है...क्यों???  शायद समाज से बड़ा होता है व्यक्ति...व्यक्ति जो प्रकृति का हिस्सा है...और रेखा के शब्दों में शरीर का अपना धर्म होता है....समाज का अपना...और सच दोनो है...जो अलग अलग समय पर तवज्जो पाता है...
सच का सामना....में जो प्रतियोगी आते हैं अगर उन्हें अपना सच बयां करने में आपत्ति नहीं है तो हमें क्या परेशानी हो सकती है, ये समझ से परे है...रही बात ये कि इसका समाज पर बड़ा बुरा असर पड़ेगा..बच्चे बिगड़ जाएंगे, हम बिगड़ जाएंगे.. तो ऐसा भी नहीं होता है...देश में पिछले दशक में ना जाने कितने धार्मिक चैनल खुले हैं लेकिन उस तेज़ी में क्यो लोग धार्मिक हुए हैं???

बोलो..तपस्वी बनोगे

वो किसी का शत्रु नहीं है...सबका दोस्त है...धीमे धीमे बोलता है... उसने अपने जीवन के कोणों को मिटा दिया है...वो अब गोल है...
सपाट चिकना गोल...उसपर बाहरी वातावरण का असर नहीं होता...
क्या बात है...अगर किसी को दुनिया ज्यादा बुरी लगने लगी हो...तो उनके लिए सलाह है कि वो भी अपने जीवन के कोण मिटा दें...
सब ठीक हो जाएगा...
ऐसे ही लोगों को आज का तपस्वी कहते हैं...देखिएगा...ये साधना आसान नहीं होती....साधने के पहले विचार जरूर कर लीजिएगा...
उस तपस्वी को मेरा नमस्कार

लड़की...खूबसूरत लड़की...और दोस्त...वाह वाह वाह

सुनते हैं आजकल इ धंधा खूब जोरों पर है कि कौन किसका और किसकी दोस्त है? ये दुनिया को बताया जाए, ये कहते हुए कि किसी को मत बताना...वैसे, ऐसी ही बातें दुनिया को सबसे ज्यादा पता होती है...जिसे बताते हुए ये कहा जाता है कि सुनो किसी को मत बताना अंदर की बात है...सिर्फ हमको पता है...और अब तुमको बता रहे हैं...श्री श्री 1008 जी ने पहले श्री श्री 1008....जी को उकसाया...दुनिया को बताया कि ,देखो जी की खूबसूरत दोस्त को देखो...और जी कितना जान छिड़कते हैं ये भी देखो...अब जी दिखा रहे हैं जी को...देखो देखो....देखो कि उनके लिए करोड़ों रुपये कोई मायने नहीं रखता...इसी बीच एक और रसिक कूदते हैं....मजा लेते हुए...भाई आगे-आगे चलो हम भी पीछे हैं तुम्हारे....कहते हुए साब पूरे सीन में एंट्री करते हैं......अरे खुशकिस्मत है वो तो...खूबसूरत लड़की से दोस्ती है...क्या गलत है इसमें???
जैसे कि उनका तो जिह्वा लपड़ रहा हो ये कहने कि लिए कि भाई हमें देखो हमे भी दिखाओ....चलो मेला घुमाओ...और सीन से गायब हो जाते हैं...हम भी पीछे हैं तुम्हारे...कोई गलती नहीं है साहब जी कोई गलती नहीं है किसी की गलती नहीं है...प्रेम तो अंधा होता है...और अंधा कोई गलती करे भी तो उसे माफ करो यार...
लेकिन दिक्कत फिर कैसे होती है....आखिर राही मनवा को तकलीफ क्यों होने लगती है...फूल सी कोमलांगा दोस्त दुश्मन कैसे लगने लगती है? ये बात समझ में नहीं आती...अरे बेवकूफ...बगिया में एक ही फूल तो होता नहीं है...और हर फूल अगले फूल से सुंदर होता है....फिर एक ही फूल क्यों देखें भला....बगिया है किसके लिए फिर???.....लेकिन....
फूल कभी जब बन जाए अंगारे...

नंगे पांव मेरा दोस्त










पीले रंग की बुशर्ट
और पीले रंग की पैंट
'गरीब'
भूखा, नंगा गरीब
ये आम राय थी लोगों की 
लेकिन मेरा दोस्त नंगा नहीं था
ताकिद!
सिर्फ उसके पांव नंगे थे...
वो नंगा नहीं था,
परिस्थितियां थीं जो नंगी थीं,
और नंगा था उसका समाज
जो उसके ईर्द-गिर्द खड़ा था...
जूते वालों का समाज
और इन सबके बीच...
नाचती,ठिठोली करती नंगी थी उसकी किस्मत
कह रहे थे लोग
कैसी किस्मत लेकर आया है...
दिल्ली की चिलचिलाती धूप में इसके पास जूते भी नहीं हैं...
देखो!
शायद देखने वालों ने ये नहीं देखा था
कैसे उसके बापू ने थामी थी उसकी उंगली
और उस भीड़ में कैसे कातर थी उसकी मां की नज़रें
जो लगातार उसके नंगे पांवो को निहार रही थी
कहीं किसी जूते से दब न जाए, इस खयाल में...
कैसे था बदकिस्मत मेरा दोस्त
कैसे था वो भूखा,नंगा गरीब
कैसै...
सिर्फ इसलिए कि उसने नहीं पहने थे जूते?

चलो दोस्त...

एक सपना जल्दी से बुन लो
सुन लो अपने दिल की बात
ये तुम्हारा वक्त है
आगे बढ़ो, लपक लो
तुम ही होगे कल
हर जगह, हर शिखर पर
उठो, भागो...
कोई है जो तुम्हारा इंतजार कर रहा है
उसके लिए उठो
तुम उठोगे, तो वो दौड़ पड़ेंगे
उनके दौड़ने के लिए उठो
एक सपना खरीदो
सच करो उसको 
किसी के लिए तो उठो यार
उठ जाओ...
खटखटाओ ना कोई दरवाजा
खुलेगा..
देखना, जरूर खुलेगा
हर बंद दरवाजे पर ताला नहीं लगा होता
उठो, चलो खोल दो...
उस दरवाजे को खोल दो
जिसके पार जाने का अधिकार सिर्फ तुमको है..
चलो दोस्त 
चलते हैं...
आ जाओ....

Sunday, March 13, 2011

Striving with no guarantee of success

 I'm reminded that there is an obligation on Christians to make an effort to do the difficult thing: follow Jesus, with all the sacrifice and service that this entails. In the passage he insists that we strive.

‘Strive to enter through the narrow door; for many, I tell you, will try to enter and will not be able. When once the owner of the house has got up and shut the door, and you begin to stand outside and to knock at the door, saying, “Lord, open to us”, then in reply he will say to you, “I do not know where you come from.” Then you will begin to say, “We ate and drank with you, and you taught in our streets.” But he will say, “I do not know where you come from; go away from me, all you evildoers!” There will be weeping and gnashing of teeth when you see Abraham and Isaac and Jacob and all the prophets in the kingdom of God, and you yourselves thrown out. Then people will come from east and west, from north and south, and will eat in the kingdom of God.

It's not enough to sit back and enjoy the kingdom of God, as though "once saved always saved" were true. The kingdom demands a consistent and repeated effort of Christians.

And I don't see any indication of "success" at all. It's not even a matter of misunderstood success; we can't just say that we succeed by having a happy family rather than the false success of big house and a nice car. No, it looks as though it's the sincere intention of effort that is important in Jesus' message. Sincere intention of effort, and not just sincere intent; that's a necessary part of Christian being.

गाँधी की कर्मभूमि मे दम तोड़ते किसान


सेवाग्राम ;वर्धा मार्च । महात्मा गांधी की कर्म भूमि में कर्ज के मकड़जाल में फंसे किसान दम तोड़ रहे है। पिछले एक साल में वर्धा जिले में पांच सौ से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके है। इनमे बड़ी संख्या कपास उत्पादक किसानों की है। खास बात यह है कि कपास उत्पादकए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों से अपने खेतों को बांझ बना रहे है। एक बार इन जेनेटिक कपास बीजों को लगाने के बाद उस खेत दूसरी कोई फसल लेना बहुत मुश्किल हो जाता है। इन कपास बीजों पर बहुराष्ट्रीय कंपनी मोंसेंटो की इजारेदारी है। विदर्भ के ज्यादातर किसान मोंसेंटो के बीटी काटन बीज पर पूरी तरह निर्भर हो गए हैं। पराग के दुसरे परंपरागत बीज इस अंचल से ख़त्म हो चुके हैं।
विदर्भ के इस अंचल में किसानों को केंद्र सरकार की कर्जमाफी का न कोई फायदा मिला और न ही प्रधानमंत्री के राहत पैकेज का। कर्जमाफी का ज्यादातर पैसा बैंकों को चला गयाए तो प्रधानमंत्री राहत का ज्यादा हिस्सा सरकार के विभिन्न विभागों में बट गया। कपास किसान को फौरी रहात देने के लिए उन्हें अन्य व्यवसाय शुरू करने के वास्ते जो पैसा बंटाए वह कांग्रेसी नेताओं की जेब में चला गया।
महात्मा गांधी यहां 1936 में आए और कपास के किसानों के बीच बस गए थे। गांधी ने यहीं पर चरखा से सूत कांट कर स्वालंबन का नया रास्ता दिखाया था। उन्होंने अहिंसा का पाठ पढ़ाया था पर यहां के किसान आज अपने साथ ही सबसे बड़ी हिंसा कर रहे हैं। हालात पिछले डेढ़ दशक से बिगड़े हैं। जब उदारीकरण का दौरा शुरू हुआ और चरम पर आया। उसी दौर में वर्धा के एक किसान रामदास बोरानवार ने 1997 में खुदकुशी कर ली। यह विदर्भ की पहली खुदकुशी थी। इसके बाद से ही खुदकुशी का सिलसिला शुरू हुआ। पिछले नौ साल में 14 हजार से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है। जबकी सरकारी आकड़ों में चार हजार पांच सौ किसानों की खुदकुशी मानी जा रही।
सेवाग्राम में गांधीवादी कार्यकर्ता अविनाश काकड़े ने जनसत्ता से कहा कि यहां के किसानों की बर्बादी की मुख्य वजह मौजूदा फसल चक्रए कर्ज और समर्थन मूल्य का अव्यावहारिक निर्धारण है। यहां सिंचाई की कारगी व्यवस्था नहीं है। जिसके चलते कपास किसान पूरी तरह कपास के पानी पर निर्भर हैं। जबकी बहुराष्ट्रीय कंपनी मोंसेंटो के बीज काटन के लिए खेत में पानी की ज्यादा जरूरत पड़ती है। पानी न मिलने से फसल बर्बाद होती है और किसान कर्ज लेने पर मजबूर होता है। मोंसेंटो का यह दावा भी गलत है कि बीटी काटन बीजों में कीड़ा नही लगता। आसपास के खेतों में कीड़े की वजह से कपास की फसल प्रभावित हो चुकी है। इसी वजह से पानी के साथ किसान कीटनाशक के इंतजाम में लगता और महाजन का कर्ज उस पर बढ़ता जाता है।
वर्धा जिले के चिंचौली गावं में एक किसान नंदराम दयाराम धोबाले ने करीब एक साल पहले खुदकुशी की। बीते रविवार को जब उसके घर पहुंचेए तो उसका समूंचा घर एक कमरे का नजर आया। जिसमें एक तरफ चुल्हा फूंकती उसकी पत्नी सुलोचना नजर आईए तो दूसरी तरफ सहमी सी बैठी उसकी दो बेटियां। मिट्टी की दीवारों पर कई देवी. देवताओं के फोटो चिपके हुए थे। पर कोई बक्सा या सामान नजर नहीं आया। सुलोचना ने कहाए आदमी के जाने के बाद हम लोग बर्बाद हो गए हैं। कोई मदद नहीं मिली। न ही 70 हजार रूपए का कर्ज माफ हुआए जिसकी वजह से नंदराम ने जान दे दी।
यवतमालए अमरावती से लेकर वर्धा के करीब दर्जन भर गावं का दौरा करने के बाद साफ हो गया कि केंद्र की कर्ज माफी योजना हो या फिर प्रधानमंत्री का राहत पैकेज सब हवा में है। विदर्भ के किसानों की हालत में नजर रखने वाले महाराष्ट्र के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप मैत्रा ने कहाए श् कर्ज माफी योजना से लेकर प्रधानमंत्री राहत पैकेज किसी का भी फायदा किसानों को नही मिला। पैकेज के नाम पर झांसा देने का प्रयास जरूर हुआ। प्रधानमंत्री का पैकेज तीन हजार 750 करोड़ का था। जिसमें सिंचाई के मद का भी दो हजार करोड़ रूपया शामिल कर लिया गया था। यह पैसा बाद में सिंचाई विभाग के बजट का था। बाद में यह पैसा वहां चला भी गयाए जो बांकी बचा उसमें जमकर बंदर बांट हुई। कांग्रेस के विधायक और सांसदों के रिश्तेदारों के नाम भी राहत का पैसा चला गया। क्योंकि वे भी आखिर किसान थे। बाकी जो बांचा उसमे 50 करोड़ रूपए श्री श्री रविशंकर को दिया गया ताकि किसानों के खुदकुशी से बचाने के लिए वे विदर्भ के गावों में किसानों को प्रवचन दें। यह उदाहरण है कि सरकार खुदकुशी करने वाले किसानों के साथ किस तरह काम कर रही है।
विदर्भ के किसानों के हालात का अध्यन करने यहां आए सामाजिक संस्था पीजीवीएस के अध्यन दल के सयोंजक एपी सिंह ने हेटीकुंडी गावं में कहाए श्हम लोगों ने विदर्भ में दो दर्जन गावों का दौरा किया और किसानों के हालत की जानकारी ली। जिसके बाद यह सब सामने आया कि ज्यादातर किसानों को केंद्रए राज्य और प्रधानमंत्री पैकेज का कोई खास लाभ नही मिल पाया है। जो तथ्य उभर कर सामने आए है उससे साफ है कि विदर्भ का किसान इस समय कुपोषणए भुखमरी और कर्ज के जाल में फंसता जा रहा है।श्
इस बीच किसान मंच ने सरकारी नीतियों में बदलाव के लिए विदर्भ के किसानों को एक जुट कर संघर्ष की रणनीति बनाई है। किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने कहा कि विदर्भ के आधा दर्जन जिलों में खुदकुशी की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए अब संगठन नई पहल करने जा रहा है। जो जानकारी मिली है उसके मुताबिक राज्य व केंद्र सरकार के साथ.साथ प्रशसन की भूमिका भी किसानों के हित में नहीं है। प्रशासन न तो साहूकार पर अंकुश लगता है और न ही केंद्रीय योजनाओं को अमल करने का प्रयास कर्ता है। किसानों के नाम पर छुटभैए नेताओं से लेकर कांग्रेस के विधायक तक किसानों का पैसा खा रहे हैं। ऐसे में हमारा किसान संगठन अगले महीने वर्धा में किसानों की पंचायत कर नई पहल करेगा

बच्चों के यौवन पर दाग लगने से रोकिए!


समय के साथ तेजी से बदल रहा लोगों का मन-मिजाज। परंतु पृथ्वी व चांद, सूरज वहीं है, ठीक इसी तरह स्त्री-पुरुष में आज भी भेदभाव कायम है। स्त्री चाहे जिस मुकाम पर पहुंच जाए, उसे पुरुष के सामने झुकना ही पड़ता है। अभी के दौर में आधुनिकता के नाम पर लड़कियां जींस-शर्ट अधिक पसंद कर रही हैं। इसी तरह हाईस्कूल तक पहुंचते ही अधिकतर लड़कियों का झुकाव युवा लड़कों की ओर हो जा रहा है। कॉलेज में पढऩे वाली लड़की का यदि ब्यॉय फ्रेंड नहीं है तो इसे अपमान समझा जा रहा है। वहीं, लड़के तो लड़कियों से दोस्ती करने के लिए बेचैन दिखते हैं। किशोर से युवा की तरफ बढऩे के साथ ही विपरीत सेक्स की ओर रुझान आम बात है। परंतु दिक्कत वहां से शुरू होती है, जब कोई अठारह वर्ष का युवक व युवती एक-दूसरे के करीब आने की कोशिश करते हैं। करीब ये दोस्ती में नहीं बल्कि पति-पत्नी की तरह संबंध बनाने के लिए आते हैं। इस वक्त इन्हें मां-बाप, भाई-बहन या फिर समाज का कोई ख्याल नहीं आता। इनका कैरियर बर्बाद हो जाएगा, ये कहीं के नहीं रहेंगे, इस बात का होश भी कच्ची उम्र के चलते इन्हें नहीं रहता। संबंध बनाने के दो-तीन महीने के बाद बिजली तब गिरती है, जब लड़की को पता चलता है कि वह मां बननेवाली है। मारे शर्म के या तो वह खुदकुशी की कोशिश करती है या फिर गर्भ गिराने की बदनामी झेलती है। इसके साथ ही कलंकित होता है उसका पूरा परिवार। वहीं, लड़की का साथी या तो गायब हो जाता है, या फिर लड़की के परिवार द्वारा किए गए यौन उत्पीडऩ के केस में फंस हवालात की सजा काटता है। ऐसे कम ही खुशनसीब लड़की होती है, जिसे गर्भ ठहरने के बाद ही लड़का कबूल कर लेता है। परंतु यह उम्र शादी की नहीं होती, सो परिवार वाले इसके लिए राजी नहीं होते और अन्तत: लड़की के पास गर्भ गिराने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहता। इसमें कसूर किसका है लड़की या लड़का या फिर अभिभावक, जिन्होंने बच्चों को इतनी आजादी दे रखी थी? बच्चियां बड़ी होने के साथ मां-बाप की जिम्मेवारी बढ़ जाती है। सौ में साठ फीसदी अभिभावक यह नहीं देखते कि बच्ची यदि कॉलेज गई है तो उसने कितने क्लास किए। उसके मित्रों की सूची में कौन-कौन लड़के हैं। कॉलेज कैसे जाती है, आने में विलंब क्यों हुआ, जिस विषय का वह कोचिंग करना चाहती है, क्या वास्तव में उसे जरूरत है या फिर टाइम पास? ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर नजर रखकर बच्चों को दिग्भ्रमित होने से बचाया जा सकता है। बेटों के पिता की जिम्मेवारी भी बेटी के पिता से कम नहीं है? यदि उनका बेटा किस लड़की के साथ गलत हरकत करता है। ऐसे में बदनामी उनकी भी होती है, समाज में उनका सिर भी झुकता है। ऐसे में थोड़ी से चौकसी इस भीषण समस्या से बचा सकती है। अत: चेतिए और बच्चों को दोस्त बनाइए ताकि ये आपको अपने दिल की बात बेहिचक बता सकें। इससे आप गंभीर संकट में फंसने से बच जाएंगे। बिहार के छोटे-छोटे गांव से भी नाबालिग लड़के-लड़कियां शादी की नीयत से भागने लगे हैं। वहीं, अस्पताल के आंकड़े बताते हैं कि गर्भ गिरानेवालों की संख्या भी बढ़ी है।

बच्चों के पेट पर डाका!


कहते हैं बच्चों में भगवान का वास होता है, उसकी गलतियां भी क्षम्य होती हैं। परंतु, यदि बिहार में मिड डे मील की पड़ताल करें तो चौंक जाना स्वाभाविक होगा कि यहां बच्चों के पेट पर भी डाका डालने से लोग बाज नहीं आते। घोटालेबाजी करनेवालों की नजरें छोटे-छोटे बच्चों के पेट पर हर वक्त जमी रहती हैं। जैसे ही मौका मिला, ये घोटाले को अंजाम दे डालते हैं। मिड डे मील में भी घोटाले का मामला परत-दर-परत सामने आ रहा है। यह अलग बात है कि इसमें एक साथ करोड़ों के घोटाले का मामला सामने नहीं आया है। इसकी राशि टुकड़े-टुकड़े में स्कूलों तक पहुंचती है। ऐसे में घोटाले का स्वरूप छोटा-छोटा परंतु आंकड़े बड़े हैं। यदि सीबीआई मिड डे मील की इमानदारी से जांच करे तो अबतक हुए घोटाले का भेद खुलना तय है। प्राथमिक व मध्य विद्यालयों में पढऩे वाले गरीब बच्चों को पढ़ाई के प्रति रुचि बनी रहे और वे प्रतिदिन पढऩे आएं, इसी खातिर इस योजना की शुरुआत की गई थी। इससे पहले लाखों गरीब अभिभावक इसलिए अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते थे कि वे खेतों में काम करते थे। देश में सबसे पहले इस योजना की शुरुआत मद्रास सिटी में की गई थी। उद्देश्य था कि समाज से वंचित गरीब बच्चों को भी भरपेट भोजन मिले। इससे स्कूल आने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी थी। इसके पश्चात सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में 28 नवंबर 2001 को इसे पूरे देश में लागू करने का निर्देश दिया। इस योजना के लागू होते ही हजारों लोगों को जैसे रोजगार मिल गया। इस योजना में अधिक से अधिक कमाई कैसे हो, इसपर शिक्षक से लेकर स्कूल के प्रधानाध्यापक फिर जिला शिक्षा अधिकारी तक विचार-विमर्श करते हैं। सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, सिवान, शिवहर सहित कई जिले में दर्जनों ऐसे स्कूल हैं, जहां छात्र तो सौ हैं परंतु पच्चीस-तीस ही नियमित आते हैं। ऐसे में हजारों रुपए प्रतिमाह एक स्कूल से सीधे आमदनी हो जाती है। इसके पश्चात चावल की निम्न क्वालिटी का इस्तेमाल किया जाता है। सरकार द्वारा जारी मेन्यू में खिचड़ी भी बच्चों को दी जाती है। इसमें आए दिन कीड़े मिलने की शिकायतें बिहार में आम बात है। कई बार कीड़ों की संख्या इतनी अधिक रहती है कि बच्चे भोजन करते ही गंभीर रूप से बीमार हो जाते हैं। इनके अभिभावकों के हो-हल्ला के बाद प्रशासन की नींद खुलती है। जांच में घोटाले का मामला सामने आता है। इस योजना में गड़बड़ी के लिए अबतक सैकड़ों कर्मचारी को दोषी पाया जा चुका है। कार्रवाई के नाम पर अधिकतर मामलों में पैसे लेकर 'फूल' के 'चाबुक' चलाए गए, परंतु कोई कार्रवाई नहीं की गई। सरकारी मेन्यू के अनुसार, बच्चों को सोमवार को चावल व कढ़ी, मंगलवार को चावल-दाल व सब्जी, बुधवार को खिचड़ी, गुरुवार को सब्जी पोलाव, शुक्रवार को चावल व छोला, शनिवार को खिचड़ी व चोखा देना है। परंतु बिहार के दर्जनभर स्कूलों में ही इसका पालन हो पाता है। वह भी चालीस फीसदी ही। अधिकतर स्कूलों में गुरुजी के लिए भी इसी योजना से भोजन बनता है। उनका भोजन उनके घर की तरह ही स्वादिष्ट होता है। पहली जुलाई को बिहार के विधानसभा में भाकपा विधायक ने गड़बड़ी मामले को मजबूती से उठाया था। मानव संसाधन मंत्री इसका कोई जवाब नहीं दे सके थे। नतीजतन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा था। उन्होंने इस मामले की जांच सदन की कमिटी से कराने की बात कही। बावजूद बच्चों के भोजन में घपला करने से शिक्षक से लेकर अधिकारी तक बाज नहीं आ रहे हैं। सभी को अपना-अपना हिस्सा चाहिए। परंतु बड़े होने पर जिसके कंधे पर देश की बागडोर आने वाली है। उसकी चिंता किसी को नहीं है। कई स्कूलों में तो अभिभावकों ने अपने बच्चों को स्कूल में खाने से मना कर दिया तो कई ने अपने बच्चों को विद्यालय भेजना ही बंद कर दिया। यही है  मिड डे मील का सच।

मुर्दों को भी चाहिए पैसे!

कहते हैं कि मरने के बाद व्यक्ति खाली हाथ ही जाता है। सत्य है, पर शास्त्र बताते हैं कि मरनेवाले की आत्मा को तबतक शांति नहीं मिलती, जबतक उसका क्रियाक्रम ठीक ढंग से न किया जाए। बस, इसी का फायदा उठाते हैं डोम और पंडित। पंडित जी मरनेवाले परिवार से हजारों तो डोम भी सैकड़ों रुपए वसूल लेते हैं। अपनों के मरने के गम में सराबोर अनगिनत लोगों को इस आडम्बर को पूरा करने में जेवर व जमीन तक बेच देनी पड़ती है। 21वीं सदी में भी डोम श्मशान घाट का राजा बना हुआ है। बिहार की बात करें तो यहां कोई ऐसा श्मशान घाट नहीं है, जहां डोम मनमानी और रंगदारी न करते हों। यदि जेबें भरी न हों तो मृतक का शव जलाना मुश्किल नहीं असंभव है। अर्थात, मरने के बाद भी चाहिए हजारों-हजार रुपए, यानी शव...श्मशान...डोम...रुपए भी सत्य है।
प्रसंग एक : मनुष्य जीवन भर किसी व्यक्ति को चाहे कितना कष्ट क्यों न पहुंचाए परंतु उसके मरने के बाद धूमधाम से दाह संस्कार जरूर करता है। उसे डर रहता है कि कहीं उसकी आत्मा उसे तंग करना न शुरू कर दे। इस अंधविश्वास में लगभग सभी मनुष्य रहते हैं, जीते हैं। इसी का फायदा उठाते हैं डोम और पंडित। दाह-संस्कार के क्रम में पंडित जी बार-बार यह कहना नहीं भूलते कि दान में कमी होने पर मृतक की आत्मा भटकती रहेगी।
 प्रसंग दो : एक हकीकत...पटना निवासी एक गरीब व्यक्ति की मौत एक माह पूर्व हो गई थी। सारे परिजन गम में डूबे थे। यहां कोई बुजुर्ग नहीं था। पड़ोसियों ने बताया कि मृतक को ले जाने के लिए आवश्यक सामान मंगवाना होगा। इस बीच झोले के साथ एक पंडित जी लंबे-लंबे डग भरते हुए कहीं से पधार गए। उनसे पूछा गया कि क्या-क्या मंगवाना है। इसपर, उन्होंने लंबी-चौड़ी सूची परिजनों को थमा दी। सामान आने के आद मृतक को जलाने के लिए गुलबी घाट पर ले जाया गया। पता चला कि पहले रजिस्ट्रेशन होता है। इसकी व्यवस्था सरकार की तरफ से की गई है, राशि भी कम लगती है। खैर, रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया पूरी करने के बाद परिजनों ने जलाने के लिए लकड़ी खरीदे। इसके बाद लकड़ी सजाने वालों से शुरू हुआ मोल-तोल। वह हजार के नीचे बात ही नहीं कर रहा था। इस परिवार के सदस्य एक-दूसरे से फुसफुसा रहे थे कि पैसे कहां से आएंगे? खैर घाट पर आए एक पड़ोसी से उधार लेकर इसकी भी व्यवस्था हुई। तबतक घाट का डोम लंबे-लंबे पग भरता पहुंचा। पंडित जी फुसफुसाए आग देने के लिए डोम ही दियासलाई जलाता है। डोम से कहा गया कि 'भैया मेरे' जरा दियासलाई जला दीजिए। डोम भड़का और कहा-पहले बीस हजार निकालो। परिजन भौंचक-उन्हें लगा कि बीस रुपए मांग रहा है। मृतक के एक बेटे ने दस-दस के दो नोट निकालकर डोम को दिए। डोम ने दोनों रुपए जमीन पर फेंक दिए और 'गरजा' भीख दे रहो हो क्या? वह आप से अब 'तुम' पर उतर गया था। इसी बीच एक अन्य मृतक की लाश पहुंची, जिसे देख उसकी आंखें चमकने लगीं। वह भागता-हांफता वहां पहुंचा। इस शव के साथ आनेवाले परिजन कुछ मालदार दिख रहे थे। इधर, चिता सजाये परिजन सोचने लगे कि अब शव कैसे जलाएं। पंडित जी फिर फुसफुसाये, दो हजार में पट जाएगा। परिजन बोले कहां से लाए इतने रुपए, खुद दियासलाई जला लेंगे। पंडित जी बोले, ऐसा अनर्थ न कीजिएगा। आत्मा भटकती रहेगी, आपलोग चैन से जी नहीं पाइएगा। इसके पश्चात यहां आए सभी पड़ोसियों से उधार लेने का सिलसिला शुरू हुआ। जीवन में कभी उधार न देनेवाले भी दो सौ उधार दे दिए। इस तरह दो हजार जमा किए गए। हजार विनती और हाथ-पैर जोडऩे के बाद डोम ने माचिस जलाई। सभी परिजन जाड़े में भी पसीने-पसीने हो गए। यह सोचकर कि क्या शव को जलाने के लिए भी इतनी मिन्नतें करनी पड़ती हैं। पुन: अगले दिन पंडित जी कई पन्ने की लिस्ट थमा दी। इसे पूरा करने में परिजनों को हजारों रुपए खर्च करने पड़े। किसी ने जेवर बेच डाले तो किसी ने उधार लिए। परंतु पंडित जी के बताये सारे पूजा-पाठ करवाए। यह सोचकर कि कहीं उनके अभिभावक की आत्मा न भटके।
प्रसंग तीन : सरकार को यह कानून तो बनाना ही चाहिए कि शव जलाने में इस तरह की सौदेबाजी न हो। घाटों पर चल रहे डोम के रंगदारी को खत्म करने की दिशा में कभी कोई कदम नहीं उठाया गया। माना कि धनी लोग अपनी इच्छा से लाखों खर्च कर देते हैं। परंतु वे कहां जाएं और किससे फरियाद करें, जो अत्यंत गरीब हैं। श्मशान घाट पर पूरी तरह डोम का वर्चस्व है।

तालिबान की नजर परमाणु बम पर!

जैसी करनी वैसी भरनी वाली कहावत पाकिस्तान पर एकदम सटीक बैठती है। अमेरिका की मदद के बावजूद तालिबान के हमले को पाकिस्तान रोक नहीं पा रहा है। तालिबान की ताकत के सामने वह बेबस दिख रहा है? कोई दिन ऐसा नहीं है कि तालिबान बेगुनाहों की जान न लेता हो। कभी मस्जिद में तो कभी किसी सार्वजनिक स्थल पर बमबारी-गोलीबारी करना उसके 'डेली रूटीन' में शामिल है। आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले एक साल में वह हजारों-हजार बेगुनाहों की जान ले चुका है। वर्तमान में तालिबान ने खुद का एक बहुत बड़ा 'नेटवर्क' तैयार कर रखा है। वह पाकिस्तान की लड़कियों तक को दिनदहाड़े उठा ले जाता है। सूत्र बताते हैं कि तालिबान लाहौर पर कब्जा जमाने के लिए भी बेचैन है। उसके पास अत्याधुनिक हथियार भी है। हजारों की संख्या में मानव बम भी है, जो उसके इशारे पर कहीं भी किसी को मिटाकर मिटने को तैयार बैठे हैं। तालिबान की नजर अब पाकिस्तान के परमाणु हथियार पर है। यह सब यदि हो रहा है तो इसके लिए खुद पाकिस्तान ही जिम्मेवार है। दुनिया जानती है कि भारत को चोट पहुंचाने और कश्मीर हड़पने की नीयत से पाकिस्तान ने ही तालिबान को जन्म दिया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने गए दिनों खुद स्वीकार किया था कि तालिबान को उन्हीं के देश की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने अमेरिका की सीआईए की मदद से खड़ा किया। पाकिस्तान का मकसद क्या रहा होगा, इस बात से हर भारतीय बखूबी अवगत है। जरदारी का यह भी आरोप था कि पूर्व राष्ट्रपति मुशरर्फ को तालिबानियों से विशेष लगाव था। यह जगजाहिर है कि तीन दशक पहले अमेरिका-भारत के रिश्ते आज की तरह सौहार्दपूर्ण नहीं थे। अमेरिका का झुकाव भारत की तरफ तब हुआ, जब उसे लगने लगा कि इंडिया तेजी से विश्व पटल पर महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। अब अमेरिका मानता है कि पाकिस्तान में आंतकियों का मजबूत गढ़ है। सात जुलाई 2009 को पाकिस्तान के इस्लामाबाद में हुई एक बैठक में भी जरदारी ने माना था कि पाक ने ही आतंकी पैदा किये। यह भी कहा कि अमेरिका पर 11 सितंबर 2001 को हुए हमले के पहले ये आतंकी 'हीरो' समझे जाते थे। इस हमले के बाद आतंकियों का मन इतना अधिक बढ़ गया कि वे पाकिस्तान को ही निशाना बनाना शुरू कर दिये। जरदारी ने यह स्वीकार किया कि छद्म कूटनीतिक हितों के लिए ही आतंकियों को पाला-पोसा गया। यह गलती आज पाकिस्तान पर ही भारी पड़ रही है। तालिबान ताबड़तोड़ पाकिस्तानी जनता पर हमला कर रहा है। सूत्रों की मानें तो ओसामा बिन लादेन भी तालिबान में ही है। अब अमेरिका भी इस बात से घबराने लगा है कि यदि तालिबानी आतंकी पाकिस्तान के परमाणु हथियार तक पहुंच गये तो कई देशों में तबाही मचा देंगे। देर से ही सही यदि जरदारी ने माना है कि पाकिस्तान की ही देन है तालिबानी आतंकी। ऐसे में पाकिस्तान को इन आतंकियों को जल्द से जल्द कुचल देना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता तो आने वाला समय पाकिस्तान के लिए और दुरूह होगा। तालिबान में अनगिनत 'मोस्ट वांटेड' आतंकी छिपे हैं। इनकी तलाश अमेरिका भी सालों से कर रहा है। ये आतंकी अमेरिका पर हमले की साजिश भी रच रहे हैं। यह अलग बात है कि ये उसमें सफल नहीं हो पा रहे हैं।

बॉस को चेहरा नहीं, काम दिखाइए

तुरंत लाभ लेने की होड़ में आजकल कमोवेश सभी दफ्तरों में एक 'ट्रेंड'चल पड़ा है कि नए बॉस को खुश कैसे किया जाए। कैसे उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाई जाए। देखा जाता है कि वर्षों से काम कर रहे कामचोर, देहचोर को भी उस समय पंख लग जाते हैं, जब पुराने बॉस का तबादला और नए का आगमन होता है। पुराने बॉस ने काफी सोच-समझकर ही कुछ लोगों को देहचोर और कामचोर का खिताब दिया था। नए बॉस को सबकुछ समझने में थोड़ा समय तो लग ही जाता है। ऐसे में कामचोर और देहचोर काम से ज्यादा समय उन चीजों को ढूंढने में बिता देते हैं, जिससे नए बॉस प्रसन्न हों। वहीं, चुगलखोर पुराने बॉस की चुगली में जुट जाते हैं। कभी सड़क की धूल फांक रहे लोगों को नौकरी देने वाले पुराने बॉस को भी ये गाली देने से नहीं चूकते। इन्हें लगता है कि ऐसा करने से नए बॉस खुश हो जाएंगे और तरक्की दे देंगे। परंतु, यह इनकी कितनी बड़ी भूल है-यह तो समय ही बताता है। ऐसे लोगों के हथकंडे भी अलग-अलग होते हैं। कोई नए बॉस को भगवान का दर्जा दे डालता है तो कोई विद्वान का। कोई कहता है पुराने बुरे थे-आप अच्छे हैं। कोई कहता है कि पुराने ने जिंदगी बर्बाद कर दी-आपसे आबाद होने की उम्मीद है। कोई बॉस को देखते ही काम तेजी से करने लगता है तो कोई उन्हें देखकर निर्देश देने लगता है। कोई झुककर पांव छुता है तो कोई हाथ जोड़कर उनका चेहरा निहारने में लग जाता है। यह है निजी कार्यालयों की सच्चाई। इस रोग से मीडिया के दफ्तर सबसे ज्यादा बीमार हैं-कहना गलत नहीं होगा। निजी दफ्तरों में सच को सच साबित करना काफी मुश्किल है। क्योंकि, सच पर यदि अडिग हुए तो नौकरी तक चली जाएगी? सवाल यह भी कि यदि सच बॉस को बताया जाए तो क्या वे मानेंगे? जवाब यही होगा कतई नहीं? वजह साफ है-काम करने वाला व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि सही में वह कार्यों के प्रति सजग है? कहे भी तो क्यों? उसे यह अभिमान रहता है कि वह मेहनती और अपने कार्य के प्रति ईमानदार है। फिर वह सबूत क्यों दे, परंतु यह कलयुग है। यहां हर चीज का सबूत चाहिए। बॉस को भी सबूत चाहिए। हालांकि कुछ बॉस ऐसे भी होते हैं, जो ज्यादा आगे-पीछे करने वालों को तुरंत भांप लेते हैं और उन्हें दरकिनार कर देते हैं। परंतु इसमें थोड़ा वक्त लग जाता है। तबतक कई कामचोर, देहचोर और चुगलखोर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। हालांकि इनकी कलई भी जल्द ही खुल जाती है और वे कहीं के नहीं रहते हैं। इसलिए संस्थान के प्रति ईमानदार रहें न कि किसी व्यक्ति विशेष के प्रति। काम करने वाला हर बॉस अपने साथियों से यही उम्मीद करता है

हे नारद मुनी...! यह है आधुनिक पॉलिटिक्स

समय सुबह की हो या शाम की। घर की बात हो या फिर चौराहे की। टेलीविजन देखने पर या फिर रेडियो सुनने पर-एक शब्द जरूर सुनने को मिल जाता है, वह है पॉलिटिक्स। अनगिनत लोगों को तो इसका सही से अर्थ भी नहीं पता। फिर भी इस शब्द को कहने से वे नहीं चुकते। क्योंकि, इनकी नजर में थोड़े लाभ के लिए दो लोगों को लड़ा देना-पॉलिटिक्स है। पीठ पीछे गाली-मुंह पर चमचई की सीमा पार-यह है आधुनिक पॉलिटिक्स। जात के नाम पर, धर्म के नाम पर लड़ाने वाले वास्तव में आधुनिक पॉलिटिक्स को पूरी तरह से समझ चुके हैं। इसलिए-जागिए, हे नारद मुनी जी और देखिए 21 सदी के पॉलिटिक्स को। किताबों के पन्नों में नहीं बल्कि राजनेताओं के मन में, घर-घर में और व्यक्ति-व्यक्ति में। आपकी हर राजनीति (इतिहास के पन्ने में सिमटे) इसमें डुबती नजर आएगी। वर्तमान की राजनीति में सिर्फ स्वयं का बोध होता है। स्वयं को कैसे बड़ा बनाएं। स्वयं का विकास कैसे करें। ऊपरी तबके से निचले तबके तक में इसका समावेश है। घर में भाई-भाई के बीच तालमेल नहीं है। जन्म देने वाली मां तक को बुढ़ापे में छोड़ दिया जाता है। किसके भरोसे, यह बड़ा सवाल है? गरीब पिता को पिता कहने में पढ़े-लिखे नौजवानों को शर्म आती है। ऐसे शख्स की सच्चाई जब सामने आती है तो उसे कोई अफसोस नहीं होता, कोई झिझक नहीं होती। लेकिन बोल जरूर फूट पड़ते हैं...पॉलिटिक्स करनी पड़ती है। पहले पॉलिटिक्सि की बातें बहुत ऊंची मानी जाती थीं, अब तो चाय दुकानदार भी बासी चाय को ताजा कहकर बेच डालता है। यदि किसी ने शिकायत कर दी तो बिफरते हुए बताता है-बेचने के लिए पॉलिटिक्सि करनी पड़ती है। ऐसे में कई ग्राहक कहीं और का रुख कर जाते हैं। बावजूद, थोड़े से फायदे के लिए वह गलत काम करने से बाज नहीं आता। हर शहर में भ्रष्ट्राचार का प्रवेश हो चुका है। भ्रष्ट्राचार को रोकने के लिए जांच एजेंसियां भी बनीं-सीबीआई, ईडी, सीवीसी, जेपीसी। परंतु हर जगह आधुनिक पॉलिटिक्स ही पॉलिटिक्स। ऐसे में कहां से होगा इंसाफ? और करेगा कौन? झारखंड राज्य बनने के पहले बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने कहा था कि उनके शव पर राज्य का बंटवारा होगा। जीते जी वे झारखंड राज्य नहीं बनने देंगे। कुछ ही समय पश्चात झारखंड राज्य बना। कहां गया लालू का बयान। यह है आधुनिक पॉलिटिक्स। इससे बिहार कितना पीछे चला गया। कभी-कभी तो एक झूठ से समूह प्रभावित हो जाता है। कई की जानें चली जाती हैं। फिर किसी राजनेता का बयान आता है कि छोटी-मोटी घटनाएं तो होती ही रहती हैं। यह है वर्तमान पॉलिटिक्स। झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन के चलते वहां की राजनीति हमेशा से अस्थिर रही है, क्योंकि वे आधुनिक पॉलिटिक्स अच्छी तरह से जानते हैं। इसलिए-हे नारद, जागिए और भटके लोगों को वो पॉलिटिक्स सिखाइए, जिससे लोगों की सोच सकारात्मक हो। वर्ना वो दिन दूर नहीं जब हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा होगा। क्योंकि, इस पॉलिटिक्स में पेड़ कट चुके होंगे, नदियां सुख चुकी होंगी, खेत फट चुके होंगे, सूरज देवता और विशाल हो चुके होंगे और हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा...।

प्रकृति और मानव निर्मित त्रासदी की बढ़ती खतरनाक सहभागिता से सबक लेने की जरुरत !

जहां एक ओर जापान की इस ताजा भयंकर और दुखद प्राकृतिक आपदा ने समस्त प्राणी-जगत को एक सन्देश साफ़तौर पर दे डाला है कि मनुष्य अपनी कौशलता और सफलता के जितने मर्जी परचम लहराने का दावा कर ले, मगर उसका तथा धरा पर मौजूद अन्य प्राणियों का जीवन विकास प्रकृति की कृपा पर पूर्णतया निर्भर है, और रहेगा! जो लोग ये सोचते है कि वे इस धरा पर जितनी मर्जी मानव-बस्तियां बसा सकते है, जितने मर्जी जीवित रहने के वैकल्पिक स्रोत पैदा कर सकते है, इंसान को अमर बना सकते है, वे सरासर किसी गलतफहमी का शिकार है! वहीं दूसरी ओर प्रकृति ने मानव सभ्यता को यह भी चेताया है कि आपस में कोलेबोरेशन और सांठ-गाँठ न सिर्फ मनुष्य को ही अपितु प्रकृति को भी करना आता है, और वह मानव द्वारा खुद के लिए खोदी गई खाई के साथ मिलकर किसतरह अपनी विनाश लीला का सर्वांगीण विकास कर सकता है!

परसों और कल जहां एक तरह जापान ने दो-दो प्राकृतिक आपदाओं यानि ८.९ तीव्रता के भूकंप और प्रशांत महासागर में उठी तेज ३० फिट ऊँची सूनामी लहरों ( मुझे तो इसके नाम पर भी आपत्ति है, पता नहीं किस बेवकूफ ने इसका नाम सूनामी रखा जबकि इसका सही नाम कूनामी होना चाहिए था ) का तांडव झेला, वही तीसरी आपदा के रूप में परमाणु बिजली प्राप्त करने हेतु जापान द्वारा लगाए गए पांच परमाणु रिएक्टरों और दो परमाणु बिजलीघरों को भूकंप के तेज झटकों की वजह से तुरंत बंद कर दिया गया था, लेकिन फुकुशिमा स्थित एक रिएक्टर के पप्पिंग प्लांट में भारतीय समय के अनुसार दोपहर करीब बारह बजे जबरदस्त विस्फोट हो जाने की वजह से अफरातफरी का माहौल बन गया! हालांकि अभी तक की ख़बरों के मुताविक स्थिति बहुत ज्यादा चिंतनीय नहीं है मगर वैज्ञानिकों का कहना है कि अत्यधिक तापमान के कारण रिएक्टर के पिघलने और विकिरण का ख़तरा बना हुआ है ! और इसे हम दो प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव निर्मित आपदा के साथ सांठ-गाँठ की संज्ञा दे सकते है!

एक ओर चाहे वह चीन और उत्तरकोरिया से बढ़ता परमाणु ख़तरा ही क्यों न हो, मगर इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि जापान हमेशा से एक तीव्र भूकंप प्रभावित और संभावित क्षेत्र रहा है ! वहीं दूसरी ओर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दोहरी परमाणु मार झेल चुका यह देश कैसे अपने यहाँ इतना प्लूटोनियम इक्कट्ठा करके रखने की हिमाकत कर सकता है? वह बम तो सिर्फ ५ किलो प्लूटोनियम का था जबकि आज जापान खुद के तकरीबन ४५ टन प्लूटोनियम के ढेर पर बैठा है! यह जानते हुए भी कि कभी भी ऐसी सूनामी आ सकती है, कैसे यह देश अपने समुद्री तटों पर अमेरिकी परमाणु पोतो को आमंत्रित कर सकता है, जापान की हुकूमत को इस पर गंभीर चिंतन की जरुरत है! हम भगवान् से तो यही प्रार्थना करते है कि विकिरण कम से कम हो, मगर यह कहानी अभी यहीं ख़त्म नहीं हुई, ख़बरों के मुताविक जब यह विस्फोट हुआ और आपात परिस्थितियों में आस-पास की आवादी को वहाँ की सरकार ने इलाके को खाली करने के आदेश दिए तो उस इलाके से दूर भागते लोग सड़कों पर फँस गए है, क्योंकि हर कोई अपना वाहन लेकर वहाँ से दूर चले जाने को सड़क पर आ गया, और परिणामस्वरूप सड़कों पर लम्बे जाम लग गए है ! यानि कुल मिलाकर स्थिति यह है कि लोग चाहकर भी बचने का प्रयास नहीं कर सकते !

आइये अब इन सब बातों का विश्लेषण हम भारतीय परिपेक्ष में करने की कोशिश करे ! जापान एक कम आवादी वाला छोटा सा देश है, तब भी अभी तक करीब १६०० लोगो के मारे जाने और दस हजार के लापता होने की पुष्ठि हुई है, भगवान् न करे लेकिन कल्पना कीजिये कि यह अगर हमारे यहाँ हुआ होता तो मंजर क्या होता ? २६ दिसंबर २००४ की सूनामी की विनाशलीला अभी बहुत पुरानी बात नहीं हुई! खैर, जहां हम प्रकृति के इस हथियार के आगे वेबश है, वहीं हमें भी इस घटना के बाद कुछ गंभीर चिंतन की आवश्यकता आन पडी है! ज्यादा दूर न जाकर मैं दिल्ली और एनसीआर की ही बात करूंगा, जहां चार करोड़ से ज्यादा की आवादी निवास करती है! और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नरोरा स्थित परमाणु प्लांट बहुत दूर नहीं है! अगर कुछ ऐसी अनहोनी हो गई तो कहाँ जायेंगे, जब भागने के लिए सड़क ही नहीं मिलेगी ? पाकिस्तान हमारे बहुत करीब पंजाब प्रांत में अपना चौथा रिएक्टर लगा रहा है, जिस देश में कुछ भी नियंत्रण में नहीं रहता ', सोचिये कि कभी उनके जिहादियों ने उस रिएक्टर को उड़ाने की कोशिश की तो क्या उसके विकिरण से हम बच पायेंगे ? इन घटनाओं से इस मानव सभ्यता को कुछ सबक तो अवश्य ही लेने होंगे वरना ऊपर वाला ही मालिक है